हमारे आसपास का माहौल, लोगों का स्वभाव ये सब कितना ज्यादा मायने रखते हैं ये मुझे कुछ दिन पहले एकदम से महसूस हुआ। बीते दिनों हमारा एक दोस्त अपनी पत्नी और बेटे के साथ घर आया। दोस्त का बेटा अस्मि के साथ खेल रहा था, मैं दोस्त और उसकी पत्नी से बात कर रही थी और भुवन किचन में चाय छान रहा था। भुवन को किचन में देखते ही दोस्त का बेटा जोर से हंसा और बोला- "देखो पापा अंकल तो किचन में काम करते हैं..." मैं उसकी ये बात सुनकर चौंक गयी लेकिन, मैं कुछ बोलती इससे पहले ही अस्मि झट से बोली- "तो उसमें क्या हुआ... पापा तो काम करते ही हैं किचन में, घर में भी और बाहर भी। मम्मा भी करती हैं, माँ भी करती है"। बात आयी गयी हो गयी। लेकिन, बात ऐसी है जो आयी गयी है नहीं। मेरे कई दोस्त है जो घर और बाहर बराबरी से एक दूसरे के साथ काम करते हैं। बिना किसी दबाव के, बिना किसी शर्म के। भुवन और मैं भी बराबरी से काम करते हैं। कौन सा काम किसका है ये बंटवारा जेंडर के या पति या पत्नी के पद के आधार पर नहीं हुआ है। मुझे भुवन का काम करना कभी कोई बड़ी बात लगी भी नहीं। लेकिन, कइयों को लगती है और जिन दोस्तों के पति उनके साथ काम करते हैं उन्हें भी लगती हैं। कई बार उनके गुणगान भी होते हैं। लोग तारीफों के पुल भी बांध देते हैं। लेकिन, मेरा रिएक्शन हमेशा से वहीं रहा जो उस दिन अस्मि का था। मतलब कि- "पापा तो काम करते ही हैं"। मैंने जब ध्यान से सोचा तो मुझे अहसास हुआ कि आखिर मैं ऐसा सोचूं क्यों भी ना। क्योंकि मैंने तो पापा को मैंने हमेशा मम्मी का हाथ बंटाते हुए देखा है और ऐसा भी नहीं कि वो किसी के सामने ऐसा नहीं करते हैं। पापा खुलकर, खुले मन से हर काम को कर लेते हैं। तो उस दिन जब दोस्त के बेटे को पापा का किचन में काम करना अजीब लगा उस दिन मुझे ये अहसास हुआ कि ये कोई बड़ी बात है। आज भी बड़ी बात है और कल भी बड़ी बात थी। मैं क्योंकि हमेशा से ऐसे माहौल में रही जहां लिंग के आधार पर काम का बंटवारा नहीं होता तो मेरे लिए ये अजीब नहीं था। लेकिन, बात तो अजीब है।
-दीप्ति दुबे
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