अपनी ज़िन्दगी के पिचहत्तर सालों में से दो-तिहाई भाग यानी पचास साल को अपनी विलक्षण अभिनय प्रतिभा के बूते विभिन्न किरदारों को जीवंत करने वाली सुरेखा सीकरी का अवसान फिल्म और टेलीविजन के आकाश से एक जाज्जल्वमान तारे के अस्त होने के मानिंद है, जिन्हें अभिनय करते देखकर इस बात पर यकीन करना कठिन होता था कि वे कल्याणी (टीवी सीरियल बालिका वधू) हैं, राजो (तमस) हैं, फैयाज़ी (मम्मो) हैं, दुर्गादेवी कौशिक (बधाई हो) हैं या फिर अभिनेत्री सुरेखा सीकरी। अपने अभिनय से जिस किरदार को वो निभा रहें हैं उसे आत्मसात कर लेना उसे जज़्ब कर लेना हर उस अभिनेता/अभिनेत्री की खासियत होती थी जो रंगमंच से फिल्म या टेलीविजन पर आये हों। सुरेखा सीकरी का नाम भी उन्हीं कलाकारों में शामिल था। किरदार में इस तरह जज़्ब हो जाने की क्षमता के कारण ही हमने जो तीन फिल्मों में उनकी अदाकारी की बात की है उन तीनों फिल्मों तमस, मम्मो और बधाई हो के लिये सुरेखाजी को अभिनय के लिये राष्ट्रीय पुरस्कार मिले थे। सुरेखा सीकरी उन गिनी-चुनी फिल्मी शख्सियत में से एक हैं जिन्हें फिल्म से जुड़े सम्मान के अलावा संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार भी मिला।
उस कालखण्ड के दूसरे विख्यात अभिनेताओं की तरह सीकरी भी नाटकों के माध्यम से बड़े पर्दे तक पहुंचीं थीं। वह सत्तर, अस्सी और नब्बे के दशक के समांतर सिनेमा में छाईं रहीं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के वर्ष 71 की बैच की कलाकार सीकरी जब मुंबई शिफ्ट हो गई तो वे वहां भी एन एस डी के रंगमंडल में काम करती रहीं यह बात और है कि वे जिस तरह से दिल्ली के नाट्य गलियारे में सक्रिय थीं, उस तरह से मुंबई में नाटकों में कभी सक्रिय नहीं दिखीं।
अमित शर्मा निर्देशित और वर्ष 2018 में प्रदर्शित हिट फ़िल्म "बधाई हो" के लिए जब उपराष्ट्रपति वैंकय्या नायडू उन्हें सहायक अभिनेत्री का राष्ट्रीय पुरस्कार दे रहे थे तब वे व्हील चेयर पर बैठीं थीं और शारीरिक रूप से अशक्त भी थीं मगर उत्कट जीजिविषा वाली सुरेखा सीकरी जब सम्मान ले रही थीं तो सभी लोग खड़े होकर तालियां बजा रहे थे । यह सम्मान उस तेज़ जुबान वाली दादी अम्मा के किरदार के लिए मिला था जो यौन संबंधों को लेकर अप्रत्याशित रूप से प्रगतिशील सोच रखती हैं। सुरेखा सीकरी ने वर्ष1978 में "किस्सा कुर्सी" से अपने अभिनय केरियर की शुरुआत की थी। सुरेखा सीकरी को तमस (1988), मम्मो (1995) और बधाई हो (2018) में सहायक अभिनेत्री के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था जहाँ तक फ़िल्मों की बात है, उनकी यह दोनों भूमिकाएं बेहतरीन मानी जाती रही हैं, जिसके लिए उन्हें काफ़ी प्रशंसाएं और सम्मान मिला। यह भूमिकाएं थीं गोविंद निहलानी की दूरदर्शन की सिरीज़ 'तमस' (1988) जिसे बाद में फ़िल्म में तब्दील किया गया उसमें राजो कीऔर श्याम बेनेगल की 'मम्मो' (1994) फिल्म में फैय्याजी की। तमस भीष्म साहनी के हिंदी उपन्यास 'तमस' पर आधारित फ़िल्म थी।
यह सच है कि तमस और मम्मो की भूमिकाएं सीकरी
द्वारा निभाये गये दो ऐसे किरदार थे जो खूब सराहे गये लेकिन एक अभिनेत्री के तौर पर उनका दायरा बहुत बड़ा था। फिल्म हो या टीवी धारावाहिक उन्हें सौंपी गई भूमिकाओं को सीकरी ने बेहद गरिमा, दृढ़ता, संजीदगी और गर्मजोशी से निभाया। परदे पर उनकी वह भूमिकाएं बेहद प्रभावी और अर्थपूर्ण होती थीं और वो "लार्जर देन लाइफ" यानी विशिष्ट और अतिशय नज़र आती रही तो इसकी वजह उनकी कदकाठी ना होकर उनके किरदार की आंतरिक शक्ति थी जो उनके चेहरे से झलकती थी।
मुंबई और टीवी-सिनेमा की भूमिकाओं के कारण सीकरी के पास नाटकों के लिए वक्त नहीं होता था इसके बावजूद यूरिडिस, द ट्रोजन वीमेन, अंतोन चेखोव की द चेरी आर्केड और जॉन ऑसबोर्न की लुक बैक इन एंगर जैसे क्लासिक नाटकों की भूमिका के चलते उन्हें वर्ष 1989 में संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था। मस्तिष्क आघात से गत सत्रह जुलाई को उनका अवसान एक अपूरणीय क्षति है।
राजा दुबे
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