Thursday, April 1, 2021

हिन्दी रंगमंच दिवस पर याद आईं बंसी कौल की जेनुइन चिंताएं



3 अप्रैल को जब  हम हिन्दी रंगमंच दिवस मनाएंगे तब हिन्दी रंगकर्म के प्रबल पक्षधर और रंग विदूषक के प्रमुख बंसी कौल की यादें ताज़ा हो रहीं हैं ।

बंसी कौल आज़ हमारे बीच नहीं हैं मगर कोरोना काल में रंगकर्म की प्रासंगिकता का पुनर्आविष्कार करने वाले बंसी कौल के बोल आज भी हमारी स्मृतियों में यथावत हैं । 

बंसी कौल नेे कोरोना काल में लगातार युवा रंगकर्मियों से, देश के बुद्धिजीवियों से और सरकार से भी बड़े तल्ख अंदाज़ में तीखे सवाल किये थे । सवाल थे उन लाखों लाचार मजदूरों की पीड़ा के जो सिर पर गठरी और बगल में दुधमुंही संतानों को दबाए पैदल ही दूर घरों की ओर निकल आते थे । दूर भी इतना की हजार डेढ़ हजार और दो हजार किलोमीटर दूर । कोई हादसे में मारा जा रहा है, कोई थककर दम तोड़ रहा है । 

कोरोना काल में ऑडिटोरियम के उपयोग की अनुमति न मिलने के सवाल पर भी बंसी कौल ने एक राह सुझाई । उन्होंनेे कहा कि मुमकिन है कि मैं सड़कों पर मेकैनिकल प्रॉप्स ( रंगकर्म के कुछ जरुरी यांत्रिक संसाधन) के साथ एक यात्रा निकालूँ, जिसे मैं प्रोसेशनल थिएटर यानी नुक्कड़ नाटक कहूँ । जिसे लोग खिड़कियों से देखें । किसी कॉलोनी या सोसाइटी में ऐसा नाटक करूं जिसे लोग बालकनी से देखे और अब समय आ गया है कि स्मारकों में और बिल्डिंग की छतों पर भी फिर से नाटक के बारे में सोचा जाए ।

देश के शीर्ष, चिंतनशील रंगकर्मियों में शामिल स्वर्गीय बंसी कौल ने कोरोना काल में हिन्दी रंगमंच से जुडा एक बुनियादी सवाल भी उठाया था कि थिएटर का क्या होगा ? आज़ सवाल यह नहीं है  अपितु सवाल यह होना चाहिए कि थिएटर या कलाएँ समाज के लिए जो कुछ कर रही थीं, उसका क्या होगा? 

बंसी कौल दिल्ली के द्वारका स्थित अपने फ्लैट से ही गंभीर रुप से बीमार होने के बावजूद फेसबुक लाइव के अलग-अलग प्लेटफॉर्मों पर रंगकर्मियों खासकर युवाओं से सीधा संवाद कर रहे थे और इस प्रकार उन्होंने कोरोना काल में हिन्दी रंगमंच के दायित्व को एक दिशा दी ।

उन्होंने भोपाल की अपनी नाट्य संस्था रंग विदूषक के नए-पुराने रंगकर्मियों से प्रवासी मजदूरों की बेहाली पर कविताएं लिखवाईं जिसकी एक रचना बनाकर संगीतबद्ध किया जाएगा । उन्हें पता है कि ये कोई महान रचनाएं नहीं हैं लेकिन एक संवेदनशील कलाकार के नाते आपको अपने आसपास की ऐसी त्रासदियों के बारे सोचना पड़ेगा, दिमाग पर जोर डालना पड़ेगा. नहीं तो आप काहे के कलाकार ?

सच तो यह है कि कुछ बिरले ही रंगकर्मी इस देश में हुए हैं अथवा हैं जो रंगकर्म को एक सामाजिक दायित्व ,एक जीवन शैली और एक नैतिक अनुष्ठान मानते हैं और स्वर्गीय बंसी कौल भी उन्हीं में से एक थे । आज़ जबकि कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर से देश फिर उन्हीं विषम स्थितियों के  कगार पर है आप बहुत याद आ रहें हैं बंसी कौलजी ।


राजा दुबे

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