पापा और नानाजी. तस्वीर पापा की शादी की |
आमतौर पर भारतीय परिवारों मेंं पिताजी को बाबूजी सम्बोधित किया जाता है. हमारे परिवार में चूँकि मेरी मांँ, मामाजी, मौसीजी और मेरे पिताजी भी मेरे नानाजी को बाबूजी कहकर बुलाते थे, अत: हम सब भाई- बहन भी अपने नानाजी को बाबूजी कहकर बुलाते थे. बाबूजी का मुझपर अपार स्नेह था और मुन्ना कैसा है, मुन्ना ने कुछ खाया कि नहीं, मुन्ना को मत डाँटो और ऐसे ही बीसियों संवाद आज भी मेरे कानों में गूँजते हैं और उनके साथ बिताये एक- एक पल मेरी यादों के दृृृश्य पटल पर अंकित हैं. यूँ तो मुझे बाबूजी कई बार कई सन्दर्भ में याद आते हैं मगर दिवाली पर मुझे उनकी बहुत याद आती है. आज मैं संख्या के रुप में तो यह नहीं बता सकता कि बाबूजी ने कितनी दिवाली हमारे साथ मनाई थी मगर ऐसा संभवत: दो दशक तक तो हुआ ही था कि बाबूजी पास दिवाली पर आये थे और वो हर दिवाली पर हम सभी बच्चों और मेरी माँ (जिन्हें हम बाई कहते थे) के लिये कपड़े लाते थे. कपड़ों के अलावा फटाके, मिठाई और गुझिया के लिये मावा वे वहीं से लाते थे जहाँ हम होते थे.और हम जहाँ होते थे वो या तो गाँव होता था या फिर कस्बा. पिताजी केन्द्र एवम् न्यायपंचायत ( बाद में इन्हें जनपद पंचायत कहा गया ) में सचिव और बाई ग्रामसेविका थी, अत: पोस्टिंग तो गांँव-कस्बों मे होनी ही थी. मगर बाबूजी बड़े शहर उज्जैन से हमारे पास पानसेमल, सैलाना , आलोट सेन्थवा और बड़़वानी में आते थे.
बाबूजी हमारे लिये क्या लाते थे उसको लेकर हम बड़ी उत्सुकता दिखाते थे और जो कुछ बाबूजी लाते थे उसको पाकर खुश हो जाते थे मगर सच तो यह है कि हम बच्चों के मनोभाव फिल्म -"तकदीर" के उस गाने के माफिक होता था जिसमें एक बालिका अपने पिता के लिये गाती थी - "अच्छी-सी गुड़िया लाना. गुड़िया चाहे ना लाना, पप्पा जल्दी आ जाना" तो हम बच्चों की स्थिति भी उस बालिका जैसी ही थी हम बस यह चाहते थे कि बाबूजी दिवाली पर हमारे पास आयें. उनका हमारे साथ दिवाली मनाने का प्लान बहुत पहले बन जाता था. और वो जमाना चिट्ठियों का ही था अत: चिट्ठी से हमें खबर लग जाती थी कि बाबूजी किस दिन आयेंगे. बाबूजी का दीवाली पर हमारे पास आना यादगार घटना होती थी. वैसे तो हम बच्चों को हर बार दिवाली पर हमारे पास आना अच्छा लगता था मगर वर्ष 1962 की दीवाली तो इस सन्दर्भ में सबसे यादगार रही थी.इस साल हम बच्चे पहली बार साल भर बिना अपनी माँ के पिताजी के साथ रहे थे क्योंकि बाई ग्रामसेविका पद की ट्रेनिंग के लिये ग्वालियर जिले के आँतरी ट्रेनिंग सेन्टर में थी. दीवाली पर संभवत: वे पानसेमल आ भी जाती मगर इस बीच चीन ने भारत पर आक्रमण कर दिया और बाई अपने
सेन्टर की दीगर प्रशिक्षार्थियोंं के साथ सीमा पर लड़ने वाले भारतीय जवानों के लिये पुलोवर (फुल स्लीव स्वेटर ) बुन रहीं थीं, वो भी छत्तीस घण्टे में एक स्वेटर बुनने की तेज़ गति से. तब हम इतने समझदार नहीं थे कि बाई के इस काम पर गर्व करते. हम तो जब बाबूजी दिवाली पर आये तो उनसे लिपट कर रोये थे और बाबूजी बता रहे थे कि इन्दु (बाई का नाम इन्दिरा था) तो सिपाहियों के लिये स्वेटर बुन रही है वो देश के लिये काम कर रही है. उस दिवाली पर बाबूजी का हमारे पास आना बहुत अच्छा लगा था. त्यौहारों पर बाई के न होने से पिताजी और बाबूजी यानी ससुर-जमाई का मिलकर खाना पकाना देखने लायक दृृृश्य होता था.हम बच्चे भी कुछ न कुछ काम कर ही लेते थे.
दिवाली पर बाबूजी के हमारे पास आने और उन्हें रिसीव करने का भी अपना एक आनन्द होता था. जब पिताजी की पोस्टिंग रतलाम जिले के आलोट में थी या फिर सैलाना में बस उन सालों में बाबूजी ट्रेन से दिवाली पर हमारे पास आते थे वरना ज़्यादातर तो वे बस से ही हमारे पास आते थे. वैसे भी पश्चिम निमाड़ (खरगोन) जिले में तब पानसेमल, सेन्धवा और बड़वानी ट्रेन रुट से नहीं जुड़ेथे, वैसे तब क्या? अब तक इस इलाके में ट्रेन कहाँ है बस से आने वाले बाबूजी के इंतज़ार में हम यानी मैं और पिताजी दो-दो घण्टे बस स्टैंड पर खड़े रहते थे.जब हम सैलाना (रतलाम) में थे. हम सैलाना के उस रियासतकालीन द्वार के पास खड़े उज्जैन से आने वाली बस का इंतजार कर रहे थे. पास ही एक स्कूल थी जहाँ गेदरिंग (वार्षिक स्नेह सम्मेलन) चल रहा था.उन दिनों हमारे मामाजी भी हमारे साथ रहते थे. वो उस दिन गेदरिंग में एक रिकॉर्ड डाँस कर रहे थे. मैंने जिद की तो पिताजी मुझे स्कूल ले गये थे. वहाँ मामाजी जिस गीत पर एक्शन कर रहे थे वो गीत आज भी मुझे याद है. वो गीत था फिल्म का - "सिर जो तेरा चकराये .. ", जॉनीवाकर पर यह गाना फिल्माया था. हम जब लौटकर आये तो बस आती दिखी और बाबूजी एक बड़ा -सा झोला लिये उतरे.पिताजी ने बताया कि पास ही स्कूल में शिब्बू (यह मामाजी के घर का नाम था उनका नाम तो ध्रुवनारायण शुक्ल था) का प्रोग्राम चल रहा है, क्या आप देखेंगे? बाबूजी बोले नहीं बहुत थक गया हूँ. उसके बाद मैंने पिताजी का हाथ जोड़कर बाबूजी का हाथ थाम लिया. बाबूजी बता रहे थे दिवाली के कारण ट्रेन में बड़ी भीड़ थी. नामली से बस पकड़ी तब राहत मिली. बाबूजी हमारे घर आते तब बाई पहले उन्हें चाय देती थी फिर दिवाली के लिये तैयार नमकीन देती थी फिर बाबूजी के पसन्द का खाना बनता. दीवाली पर बाबूजी के साथ बिताये वे दिन इतनी तेजी से गुजरते जैसे फ्रंटियर एक्सप्रेस गुजरती है.
बाबूजी के बस से आने का एक और किस्सा बड़वानी से जुड़ा है. उज्जैन से बड़वानी के लिये तब को सीधी बस नहीं थी. उज्जैन से पहले इन्दौर आना पड़ता था. वहाँ से बड़वानी आने को बस मिलती थी. बस से इन्दौर से बड़वानी आने के दो रास्ते थे. एक प्रचलित और शार्टेस्ट रुट था व्यायाम ठीकरी-दवाना और एक दूसरा रुट था व्यायाम ठीकरी-दवाना जुलवानिया. पहले रुट का फासला था 150 किलोमीटर जबकि दूसरा रुट का फासला था 170 किलोमीटर का. बीस किलोमीटर का अतिरिक्त सफर यानी समय भी ज्यादा किराया भी ज्यादा दोनों ही रुट पर इन्दौर से बड़वानी को बस चलती थी. यह जरुर है कि व्यायाम रवाना उस समय पाँच बस चलतीं थीं और व्हाया जुलवानिया एक बस. बीस किलोमीटर ज्यादा का सफर यानी यात्रा में ज्यादा समय और किराया भी ज्यादा. फिर कौन उस बस से इन्दौर से बड़वानी आता था. मेरे मित्र के बड़े भाई जो राज्य सड़क परिवहन निगम में बड़वानी और जुलवानिया में स्टैंड इंचार्ज रहे उनका जवाब था इन्दौर-बड़वानी व्हाया जुलवानिया तो डाक गाड़ी है जो बेहद रुक-रुककर चलती है क्योंकि हर बड़े शहर में एक व्यक्ति डाकघर तक एक थैला लेकर जाता है. इस बस से इन्दौर से जुलवानिया तक और जुलवानिया से बड़वानी तक और इन दो रुट के बीच के स्टेशन की सवारियां ही मिलती है. इस सारे किस्से को बयान करने के पीछे सबब यह बताना है कि बाबूजी मगर इसी बस से आते थे. इन्दौर से बड़वानी का सफर जो पाँच घण्टे का है उसे बाबूजी अधिक किराया देकर साढ़े आठ घण्टे में तय करते थे. ऐसा करने के बाबूजी के तर्क थे कि इस बस से आराम से आते हैं. न टायलेट से भागकर आने की जल्दी, न चाय जल्दी पीने का तमाशा. बहरहाल हमें उनके देर से आने का कोई उम्र नहीं होता था. हम तो उनके आने मात्र से खुश हो जाते थे.
राजा दुबे.
No comments:
Post a Comment