जीवन की व्यस्तता में खो रहा है लोकपर्व - "छल्ला बोल"
बदलते सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन की व्यस्तता और उससे भी कहीं ज्यादा सोशल मीडिया की लत
ने हमारी समझ और सांस्कृतिक प्राथमिकता को बदल
दिया है. हम लोकजीवन की बहुत-सी परम्पराओं और पर्व से कट गये हैं और ऐसा ही मध्यप्रदेश के मालवा
अंचल में हो रहा है इस अंचल का एक पर्व -"छल्ला बोल" भी विस्मृति के गर्त में खो रहा है. पर्व छल्ला बोल का मंतव्य गाँव-गाँव में "टेसू" और "झैंझी" का विवाह होता है. गाँव में छोटी-छोटी बालिकाएं इस पर्व पर गाँव में छल्ला के आमंत्रण के लिये लोकगीत गाती हुईं निकलती हैं और इनका उद्देश्य गीत गाकर टेसू और झैंझी के विवाह के लिये चंदा जमा करना होता है. हाथों में पुतला और तेल का दीपक लिए यह टोली घर-घर जाकर चंदे के लिए पैसे मांगती है. कोई इन्हें अपने द्वार से खाली हाथ ही लौटा देता है, फिर भी ये गाने गाकर लोगों का मनोरंजन करते हैं. छोटी-छोटी बालिकाएं भी अपने मोहल्ला-पड़ोस में झेंझी रानी को नचाकर बड़े-बुजुर्गों से पैसे ले लेती हैं, लेकिन इन दिनों बच्चों की ये टोलियां बहुत ही कम दिखाई देती हैं।
आश्विन (क्वांर) माह की नवमी तिथि से पूर्णिमा तक चलने वाले इस पर्व की शुरुआत नवमी को सुअटा की प्रतिमा स्थापित कर होती है. इस प्रतिमा की स्थापना
के साथ ही विवाह की तैयारियां आरम्भ हो जाती हैं. नवमी से पहले सोलह दिन तक यही लड़कियां चांद, तरैया और सांझी बनाती हैं. सुअटा की स्थापना के साथ ही लड़कियां छल्ला बोल के साथ टेसू-झैंझी की शादी के लिये निकल पड़ती हैं. कुछ गाँव वाले चंदा देते हैं तो कुछ आगे जाने को कह देते हैं. मगर इससे लड़कियों का उत्साह कम नहीं होता. वे टेसू-झैंझी से जुड़े लोकगीत- "टेसू गया टेशन से, पानी पिया बेसन से", "अड़ा रहा टेसू, नाच रही झैंझी" और "नाच मेरी झिंजरिया" गाती हैं. पूर्णिमा की रात को टेसू-झेंझी का विवाह पूरे उत्साह के साथ बच्चों द्वारा किया जाता है. वहीं मोहल्ले की महिलाएं व बड़े-बुजुर्ग भी इस उत्सव में भाग लेते हैं लोक प्रेम कथाओं के क्रम में टेसू और झैंझी की अथा भी दुखांत है. जिसमें टेसू का सिर काट दिया जाता है और झैंझी भी विरह में आत्मघात कर लेती है.आख्यानों के अनुसार घटोत्कच के पुत्र टेसू के नाक, कान व मुंह कौड़ी के बनाए जाते हैं. जिन्हें लड़कियां रोज सुबह उस पर पानी डालकर उसे जगाने का प्रयास करती हैं.
विवाह के बाद टेसू का सिर उखाड़ने के बाद लोग इन कौड़ियों को अपने पास रख लेते हैं. कहते हैं कि इन सिद्ध कौड़ियों से मन की इच्छाएं पूरी हो जाती हैं.
धीरे-धीरे ग्रामीण आँचल में प्रचलित ऐसे लोकपर्व
अपनी पहचान खोते जा रहें हैं और इसके साथ ही लोक संस्कृति का आधार भी दरक रहा है. गाँव में
बच्चियों के मन में इन पर्वों के माध्यम से जो एक
सांस्कृतिक समझ विकसित होती है उसका अपना
महत्व है और इसे बचाने को आम जनता को ही आगे
बच्चियों के मन में इन पर्वों के माध्यम से जो एक
सांस्कृतिक समझ विकसित होती है उसका अपना
महत्व है और इसे बचाने को आम जनता को ही आगे
आना पड़ेगा कोई लोककला परिषद इसके लिये आगे
नहीं आयेगी.
नहीं आयेगी.
राजा दुबे
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