एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार पत्र ने चर्चित उपन्यासकार चेतन भगत को उद्धृत करते हुए यह लिखा है कि -
"भारत को मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील बनाना, सुशांत सिंह राजपूत को एक बेहतर श्रद्धांजलि होगी". इस उद्धरण से दो बातें सामने आती हैं - पहली, यह कि सुशांत सिंह राजपूत परिस्थिजन्य दबाव में मानसिक रुप से अस्वस्थ थे और कमोबेश अवसाद में भी थे जिससे उन्होंने आत्महत्या की (अभी विधिक तौर पर इसे प्रमाणित होना है) और दूसरी यह कि भारत अभी मानसिक स्वास्थ्य के प्रति संवेदनशील नहीं है. सुशांतसिंह के अवसान के कारणों में यदि हम मानसिक अस्वस्थता और अवसाद को फिलवक्त दरकिनार भी कर दें तब भी मानसिक स्वास्थ्य को लेकर देश में संवेदनशीलता का अभाव है और मानसिक अस्वस्थता के प्रति आम भारतीय हद दरजे तक लापरवाह हैं. यह कहना भी अतिशयोक्ति नहीं होगी की ज्यादातर लोग किसी भी प्रकार की मानसिक अस्वस्थता को अस्वस्थता मानते ही नहीं हैं. और तो और किसी को यदि मानसिक अस्वस्थता के लिये जाँच का कहा जाये तो वो प्रति पश्न करता है कि - "क्या मैं पागल हूँ?"
कोरोना संक्रमण के समय देश में मानसिक अस्वस्थता
विशेष तौर पर अवसाद के प्रकरण बढ़ने की बात की गई मगर आँकड़ों के भाष्य यदि इस ओर संकेत भी करें कि कोरोना संक्रमण काल मे दुनिया में और साथ ही भारत में भी कई लोग अवसादग्रस्त हो रहे हैं फिर भी इसे अंतिम सत्य मानने की भूल नहीं करना चाहिए क्योंकि कोरोना संक्रमण के दौर में कमज़कम भारत में तो कोरोना संक्रमण या लॉकडाउन की स्थितियां न तो अवसाद की , न दीगर मानसिक अस्वस्थता की या फिर आत्महत्या की ठोस और इकलौती वज़ह साबित हो रही है. भारतीय समाज की साँस्कृतिक पृष्ठभूमि इतनी सुदृढ़ है कि यहाँ संतोषपूर्ण जीवन जीने की अभ्यस्त जनता के बीच मानसिक अस्वस्थता की घुसपैठ बड़ी कठिन होती है. विश्वास न हो तो भारत में कोरोना को लेकर सोश्यल मीडिया में कटाक्ष और हास-परिहास किया गया उस पर गौर कर लेना चाहिए. इस सबके बावजूद भौतिक सम्पन्नता की चाहत, महत्वाकांक्षाओं के अलभ्य लक्ष्यों और विलासितापूर्ण जीवन जीने की चाहके चलते मानसिक अस्वस्थता अब देश और समाज में उभर रही है जो चिंता का सबब है.
हमारे जीवन शैली से जुड़े इस बोध-वाक्य में कि -
"पहला सुख निरोगी काया" में रोगहीनता के इस आदर्श में मानसिक रोग शामिल हैं या नहीं इसका कोई प्रमाण तो नहीं है मगर हमारे देश और समाज में निरोगी होने से तात्पर्य पूर्णत; अर्थात् शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रुप से स्वस्थ्य होना है. सामाजिक स्वास्थ्य को पोषण आहार-तत्व सम्बन्धी विज्ञान से जोड़कर देखा जाता है.यह एक नई विचारधारा है, जिसका जन्म मूलत: शरीर विज्ञान तथा रसायन विज्ञान से हुआ है. आहार तत्वों द्वारा मनुष्य के शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन एवं विश्लेषण इसका मुख्य विषय है.दूसरे शब्दों में शरीर आहार सम्बन्धी सभी प्रक्रियाओं का नाम ही पोषण है. हमारे देश में ध्यान, योग और आध्यात्म तीन ऐसे कारक हैं जो हमें मानसिक अस्वस्थता से बचाते हैं. भारतीयों के इन रुझान को ही मानसिक अस्वस्थता के खिलाफ एक कवच माना जाता है. इसी प्रकार संयुक्त परिवार की व्यवस्था भी हमें मानसिक अस्वस्थता से बचाने मेंसहायक होते हैं.इन साँस्कृतिक अनुकूलताओं से भी भारत में मानसिक अस्वस्थता कम है.
स्वास्थ्य की देखभाल हेतु मानसिक स्वस्थता अत्यंत आवश्यक है। मानसिक स्वास्थ्य का आशय भावनात्मक मानसिक तथा सामाजिक रुप से स्वस्थ्य होना है. मानसिक स्वास्थ्य ही मनुष्य के सोचने, समझने, महसूस करने और कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है .मानसिक विकार में अवसाद सबसे प्रमुख है और यह कई सामाजिक समस्याओं जैसे- बेरोज़गारी, गरीबी और नशाखोरी का कारण बनती है.मानसिक रोगों के विभिन्न प्रकारों के तहत अल्जाइमर रोग, डिमेंशिया, चिंता, ऑटिज़्म, डिस्लेक्सिया, डिप्रेशन, नशे की लत, कमज़ोर याददाश्त, भूलने की बीमारी एवं भ्रम आदि आते हैं .इसके लक्षण भावनाओं, विचारों और व्यवहार को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं .उदास महसूस करना, ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में कमी, दोस्तों और अन्य गतिविधियों से अलग होना, थकान एवं निद्रा की समस्या आदि इसके लक्षणों के अंतर्गत आते हैं.मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कई कारण होते हैं जिनमें से प्रमुख कारण आनुवंशिक प्रभाव, गर्भावस्था संबंधी पहलू, मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन, मनोवैज्ञानिक कारण, पारिवारिक विवाद, मानसिक आघात और सामाजिक कारण. कई बार आर्थिक एवं नैतिक पहलू भी इन कारकों केआविर्भाव का कारण होते हैं.
आज देश में मानसिक अस्वस्थता के बुनियादी कारणों
पर पुनर्विचार कर इस संकट से बचने की रणनीति तैयार करने की अहम् जरुरत है और इस समस्या से निपटने का समाधान भी हमारे साँस्कृतिक ढाँचे मे ही तलाशना होगा.
राजा दुबे
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