उम्र के इस मुकाम पर जब सत्तरवें साल में दो माह पहले ही कदम रख चुका हूँ, याददाश्त दिन ब दिन साथ छोड़ रही है, लगता है बची-खुची ही सही यादों को समेट लिया जाये. यह बात उन दिनों की है जब मैं काम धन्धे की तलाश में घर से बाहर हुआ करता था. राखी पर बहन के पास होने की इच्छा के वशीभूत तब बाहर से घर आने को निकलता तो हर बार रोडवेज की कारपोरेशन की बस से सफर सुखद नहीं होता था.और कई बार यह उर्दू का -" सफ़र" ,अंग्रेजी के -"सफर" में तब्दील हो जाता था. अपने इंतहाँ गर्म मौसम और मीठे पपीते के लिये ख्यात रियासतकालीन विरासत को समेटे बड़वानी कस्बा तब राजस्व अनुविभाग का मुख्यालय था और पिता के केंन्द्र एवम् न्याय पंचायत में पास के एक कस्बे पाटी में सचिव होने और माँ के पास के ही गाँव भीलवाड़ा में ग्रामसेविका होने से परिवार उन दिनों बड़वानी में ही रहता था. मै बडवानी कॉलेज से इकानामिक्स में एम.ए. करने के बाद वर्ष 1973 की शुरुआत में ही नौकरी की तलाश में पहले खरगोन कॉलेज में कामर्स का एडहॉक लैक्चरर हो गया था, वहाँ से दो-ढाई महीने बाद ही केन्द्र सरकार की हॉफ ए मिलियन जॉब योजना के तहत साँख्यिकी सहायक पद के लिये चयनित होकर इन्दौर मे प्रशिक्षणरत था. मेरी छोटी बहन मँजू उन दिनों बड़वानी कॉलेज से ही बी.ए. कर रही थी और छोटा भाई मनीष स्कूल में पढ़ता था.
तब इन्दौर से बड़वानी सड़क मार्ग से और वह भी मध्यप्रदेश राज्य परिवहन निगम की बस से ही जाया जा सकता था. तब निमाड़ के इस इलाके में रेल परिवहन नहीं था , और आज़ भी नहीं है. राखी के एक दिन पहले अपनी ट्रेनिंग क्लास के बाद मैं शाम चार बजे अपनी अटैची के साथ इन्दौर के सरवटे बस स्टैंड पहुँच गया था . बस स्टैंड पर जाते ही यह बुरी खबर सुनने को मिली कि नर्मदा नदी में बाढ़ के कारण ए्बी रोड पर खलघाट का पुल डूब गया है और इस वजह से सभी बस सेवाएँ कैंसल कर दी गई हैं. इन्दौर से बड़वानी तक तब महू, धामनोद, खलघाट, दवाना और अँजड़ होते हुए बड़वानी जाते थे. निराश होकर में वहीं एक बैंच पर बैठ गया. चार से छ: बजे तक मैं दो चाय पी चुका था और कब तक मैं वहीं बैठा रहूँगा तय नहीं था. बड़वानी जाने वाले लोगों का अनुमान में टिकट खिड़की नम्बर एक पर तफ्तीश करने वालों की संख्या से लगा रहा था. कुछ देर बाद हम कथित बाढ़ पीड़ित (मैं इस विशेषण पर हँसा था क्योंकि यह टैग बड़वानी जाने वाले हमारे एक सहयात्री राजाराम वास्कले ने दिया था) परेशानी का समाधान करने में जुट गये.रात नौ बजे तक बड़वानी जाने वाले सहयात्रियों की संख्या तीस हो गई थी.
हमारे साथ एक पत्रकारनुमा खोजी सहयात्री भी था जिसने यह खबर दी कि बस का ड्रायवर बड़वानी का है और बस स्टैंड का सुपरवाइजर यदि इजाजत दे तो वह बड़वानी व्हाॉया राजघाट बस लेकर जा सकता है.मगर क्या सुपरवाइजर इसके लिये तैयार होगा? तब एक हमारा सहयात्री जो पुलिस मे काँस्टेबल था उसने कहा ग्यारह बजे टी.आई. सा'ब आयेंगे उनसे पूछते हैं, शायद वो हमारी मदद कर पाये. उम्मीद की एक नहीं दो-दो किरणों की चमक ने हमें आल्हादित कर दिया था.बारिश हो नहीं रही थी, बादल छाये थे और उमस भारी थी .सरवटे के पँखे इतने छत से लगे हुए थे कि हवा के नीचे आने में - इट टेक्स टाईम. काँस्टेबल जो यूनीफार्म में था वो तो पसीने से तरबतर था मगर कुछ देर पहले जब मैंने छुट्टी पर जाते समय यूनीफार्म पहनने वाला सवाल किया था तो उन्होंने बताया था कि इससे टिकट नहीं लगता है. हम सब बेसब्री से जिन टी.आई. सा'ब का इंतज़ार कर रहे थे वो ठीक ग्यारह बजे आये और अपने वायदे के पक्के हेड सा'ब उनसे मिले सारी बात पुलिसिया अंदाज़ में तफसील से बताई. टी.आई. ने उन्हें पास आने को कहा और उनके कान में कुछ बात कही. हेडकाँस्टेबल
ने जब वो बात हमें बताई तो हम पहले चौंके और फिर खुश भी हुए. तय यह था कि स्टैंड सुपरवाइजर जैसे ही बस स्टैंड पर आयेगा, टीआई सा'ब हमें इशारा करेंगे और हम लोग नारेबाज़ी करने लगेंगे. सवाल नारों का था सो यह काम मैंने अपने सिर लिया.
नारा बना - "बड़वानी बस भेजो, बड़वानी बस भेजो" और आगे - "खलघाट पर पानी है तो राजघाट से भेजो". नारे इंक्लाब जिन्दाबाद जैसे आसान नहीं थे.खैर दस पन्द्रह मिनट बाद जब स्टैंड सुपरवाइजर का स्कूटर पोर्च में रुका तो एक हेल्परनुमा लड़के ने उसे सा'ब के हाथ से लेकर साईड में पार्क किया. टीआई सा'ब के इशारे के साथ ही हम सब जो अब चालीस से ज्यादा हो गये थे. बस भेजो, बस भेजो का नारा लगाने लगे. शुरू में कुछ लोग धीरे धीरे नारे लगा रहे थे मगर स्टैंड सुपरवाइजर के कमरे में जाते समय टीआई सा'ब जो दोनों हाथ ऊपर कर इशारा किया तो हमारा उत्साह बढ़ा और हम जोर-जोर से नारे लगाने लगे. मुझे याद है सुप्रसिद्ध कथाकार प्रेमचन्द ने अपनी एक कहानी में लिखा था कि भय और उत्साह का तेज़ी से संचरण होता है और हम सब उत्साह से भरे थे और हमारे स्वर तेज़ होते जा रहे थे. आखिरकार टीआई, स्टैंड सुपरवाइजर के साथ हमारे पास आये. टीआई सा'ब नकली गुस्से के साथ बोले -" बंद करो यह नारेबाजी, सुपरवाइजरजी ने बंदोबस्त कर दिया है.साढ़े बारह बजे बस व्हॉया राजघाट जयेगी. फिर सुपरवाइजर सा'ब ने अपने साथ आये कंडक्टरनुमा व्यक्ति को कहा खिड़की नम्बर एक से टिकट काटो, जाओ सब लाईन में लगो. हम सबने टीआई और सुपरवाइजर के जय-जयकार के नारे लगाये और नर्मदे हर के नारे लगाने लगे.
तकरीबन एक बजे बस चली और सुबह सात बजे जब दिन हो चला था, तब हमारी बस राजघाट पुल को पार कर रही थी और इस पुल से भी पानी ज्यादा नीचे नहीं था. फिर हम सबने एक दूसरे को देखा और नर्मदे हर का जयकारा लगाया.मैं जब घर पहुँचा तो सब बेहद खुश थे और मेरी आँखें भी नम थीं, और मेरे आगे वो चेहरे बारी-बारी से आ रहे थे - जिन्होंने इस सफर को सफल बनाया. और वो राखी आज भी भुलाये नहीं भूलती है.
राजा दुबे
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