भारतीय फिल्मों में संगीत हमेशा से एक मजबूत पक्ष रहा है और फिल्म संगीत की समृद्ध परम्परा को पुष्ट करने में जिन महान संगीतकारों ने अपना अप्रतिम योगदान दिया उनमें सज्जाद का नाम भी अग्रगण्य है. कुल जमा अट्ठारह फिल्मों में संगीत देने वाले सज्जाद के बारे में यह कहा जाता है कि उन्हें अपेक्षित सम्मान नहीं मिल सका मगर जिस एक संगीतकार के बारे में स्वर साम्राज्ञी भारत रत्न लता मंगेशकर यह कहें कि - "मैं सज्जाद साहब के संगीत से सजी फिल्म संगदिल के गीतों को अपने कैरियर में एक बड़ी उपलब्धि के रूप में देखती हूँ. मैं इतना ही कह सकती हूँ कि ऐसा म्यूज़िक, जो सज्जाद साहब बनाते थे और किसी ने बनाया ही नहीं है.",अब आप ही बताईये उससे बड़ा काम्प्लीमेंट और क्या होगा? उस एक जबर्दस्त फनकार को याद करना आज इसलिये भी प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने तकनीक को भी एक पक्ष की तरह अपनी कला-यात्रा में बाक़ी ज़रूरी चीजों की तरह ही साधा. जैसे, सुरों को बांधने के वक़्त तानपुरे की जवारी समेत सरगम और तान-पलटों को सम्भाला जाता है.
सज्जाद सा'ब के वालिद मध्यप्रदेश की सीतामऊ राज्य में वहाँ के राजप्रमुख के आग्रह पर सपरिवार आ गये थे जहाँ 15 जून 1917 को आपका जन्म हुआ.
उनका कैरियर वर्ष 1944 से वर्ष 1977 तक तैंतीस साल लम्बा रहा मगर इस लम्बे कैरियर में भी उन्होनें कुछ जमा अट्ठारह फिल्म में संगीत दिया और वर्ष 1977 के बाद 21 जुलाई 1995 को अवसान तक गुमनामी के अँधेरे में रहे.
सज्जाद सा'ब के बारे में संगीत के मर्मज्ञ मानते हैं ं कि फिल्म दुनिया में यूँ तो एक से बढ़कर एक पूर्णतावादी (परफेक्शनिस्ट) हुए हैं मगर पूर्णता के प्रति सज्जाद का आग्रह इतना जबर्दस्त होता था कि उनको करीब से जानने वाले कहा करते थे कि पूर्णता के प्रति आग्रही तो बहुतेरे हैं मगर सज्जाद सा'ब पूर्णता के प्रति दुराग्रही थे. शायद इसीलिये उन्हें पार्श्वगायक तलत महमूद के गायन की गड़बड़ी बहुत खलती थी.
वे उनकी इन्हीं गड़बड़ियों के कारण तलत महमूद को 'गलत' महमूद कहते थे. वे संगीत रचना के माधुर्य के हामी थे और उसमें शोर तत्व उन्हें अस्वीकार्य था इसी कारण गायन में लाउडनैस के कारण वे किशोर कुमार को 'शोर' कुमार कहते थे.
सज्जाद साहब को अपनी प्रतिभा पर इतना अधिक विश्वास था कि उन्हें कोई सहयोग पसंद नहीं था। दरअसल वे मिलनसार व्यक्ति थे ही नहीं. गुस्सा नाक पर रहता था। , एक बार लता मंगेशकर उनकी रचना गा रही थीं तो उन्होंने लता को सावधानी बरतने की हिदायत इस तरह दी, -"यह कोई नौशाद की रचना नहीं है, इसकी बुनावट की बारीकी का खयाल रहे."
स्वभाव में इसी अक्खड़पन और बेबाक टिप्पणियों के कारण ही उन्हें अधिक काम नहीं मिला और वे ताउम्र प्राय: निराशा से घिरे रहे। दरअसल, अनेक लोग अपनी मिलनसारिता के कारण अच्छे व्यक्ति मान लिए जाते हैंजबकि वे ऐसे होते नहीं हैं. सज्जाद सा'ब ऐसी छद्म मिलनसारिता के हामी नहीं थे.दरअसल
असाधारण प्रतिभा का धनी व्यक्ति मिलनसारिता में अपनी ऊर्जा नहीं लगाता।
अपनी प्रतिभा के प्रति आत्मविश्वास से भरे सज्जाद सा'ब सब कुछ अपने बूते ही करने के हामी थे. फिल्म में लगभग सभी संगीतकार अरेंजर की सेवाएं लेते है। संगीतकार की बनाई धुन की रिकॉर्डिंग के समय अरेंजर ही विभिन्न वाद्य यंत्रों की जमावट करता है. सज्जाद ने कभी किसी अरेंजर की सेवा नहीं ली, वे स्वयं ही सारा काम करते थे.वे कभी किसी संगीतकार के सहायक नहीं रहे और न ही उन्होंने कोई सहायक कभी लिया .दरअसल, इस एकाकी चलने में ही उनके मिज़ाज का रहस्य छिपा है. वे सृजन को टीमवर्क नहीं मानते थे . वे मानते थे व्यक्ति की प्रतिभा ही महत्वपूर्ण है उस प्रतिभा का लोहा मानने वाले लोग स्वयं ही उसके साथ जुड़ जाते हैं। .संगीत सृजन फुटबॉल, हॉकी या क्रिकेट जैसा टीम गेम नहीं है इसे आप टेनिस, बैडमिंटन, बॉक्सिंग या दौड़ जैसा खेल मान सकते हैं जहाँ सब कुछ आपके एकाकी प्रयत्न ही करने होते हैं.सज्जाद को वाद्ययंत्रों की गहरी जानकारी थी और मेंडोलिन बजाने में तो वे दक्ष थे.उनके लिए वाद्ययंत्र किसी जीवित व्यक्ति से कम नहीं होताा था.उनकी दिलचस्पी लोगों से हाथ मिलाने में नहीं थी वे कहते थे जब उन्हें सबसे अधिक सुकून तब मिलता है जब उनका हाथ किसी साज़ पर होता है.सज्जाद सा'ब बाँसुरी, क्लारनेट ही नहीं, जलतरंग जैसे वाद्यों के भी उस्ताद थे.वीणा से लेकर वायलिन तक और सितार से लेकर गिटार तक सहजता और समान अधिकार से बजाने वाले सज्जाद मेंडोलिन बजाने में माहिर थे . वर्ष 1937 में मुंबई आए सज्जाद तीस रुपए महीने में मिनर्वा में काम करते थे .उनके हुनर को देखते हुए वाडिया कंपनी उन्हें साठ रुपए महीने में अपने यहाँ ले गई.
सुरैया और पृथ्वीराज कपूर अभिनित - "रुस्तम सोहराब" वर्ष 1963 में प्रदर्शित हुई थी . इस फिल्म में सज्जाद सा'ब ने अद्भुत माधुर्य रचा और फिल्म के मिज़ाज और देशकााल के अनुरूप अरेबियन संगीत का प्रभाव भी पैदा किया.लता मंगेशकर का गाया गीत- ऐ दिलरुबा नजरें मिला..., फिर तुम्हारी याद आई ऐ सनम.. और ये कैसी अज़ब दास्ताँ हो गई..... ने गज़़ब ढा दिया.अरब देशों और भारत में रची गई ध्वनियों में गजब का साम्य होता है .अनेक संगीतकारों ने इन ध्वनियों का प्रयोग किया है मगर जो बात सज्जाद सा'ब की सांगीतिक रचनाओं में थी उसे सुनकर तो यही प्रतिक्रिया लिखी जा सकती है कि व अनुपम और अमूल्य थी ं सज्जाद सा'ब के - "संगदिल" फिल्म के लोकप्रिय गीत "ये हवा ये रात ये चांदनी…" की नकल कर जब मदन मोहन ने "आखिरी दांव" में "तुझे क्या सुनाऊं मैं दिलरुबा..’ बनाया, तो सज्जाद सा'ब ने उन पर चोरी का इल्जाम लगाया. सफाई में मदन मोहन ने कहा कि उन्होंने एक महान संगीतकार के गीत की नकल की है, किसी एैरे गैरे की नहीं. यह हैसियत थी सज्जाद सा'ब की धुनों की और उन सात सुरों की जिनका माधुर्य अद्वितीय था. वरिष्ठ संगीतकार दिवंगत अनिल बिस्वास ने तो उन्हें हिंदी सिनेमा का एकमात्र मौलिक संगीतकार कहा था, ऐसा संगीतकार जिसे किसी प्रेरणा की जरूरत नहीं पड़ी. संगदिल', 'सैयां', 'खेल', 'हलचल' और 'रुस्तम-सोहराब' जैसी फ़िल्मों से अनूठा संगीत देने में सफल रहे सज्जाद साहब, दरअसल उस ज़माने में पार्श्वगायकों व गायिकाओं के लिए कठिन फ़नकार थे, जिनकी धुनों को निभा ले जाना, सबके हौसले से परे की चीज़ थी. उनकी दुरूह संगीत-शब्दावली को समझना हर एक के बस की बात नहीं थी, फिर भी, अधिकांश कलाकारों ने उनकी तबीयत के हिसाब से ही अपना बेहतर देने का काम किया.अरबी शैली के संगीत से अपनी धुन सजाने वाले सज्जाद सा'ब ने ऐसे कई मौलिक प्रयोग किये और साथ ही हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के व्याकरण से चुनिन्दा राग-रागनियों के स्वरों का इस्तेमाल भी किया.इस मामले में वे लीक से हटकर स्वर रचना करने वाले संगीतकार रहे , जिन्होंने अपने समकालीनों की राह से दूरी बरतते हुए कुछ तिरछा रास्ता पकड़ा.
सज्जाद सा'ब को विस्मृति के घटाटोप से बचाने के कुछ गंभीर प्रयास भी किये जा रहें हैं .राष्ट्रीय फिल्म अभिलेखागार पुणे उनकी स्मृति को पुनर्जीवित करने का प्रयास कर रहा है और हाल ही मेंअभिलेखागार ने हर्षवर्धन लाड को संगीतकार सज्जाद पर एक व्यक्ति चित्र (मोनोग्राफ) लिखने के लिए अनुबंधित किया है. तीन साल पहले सज्जाद सा'ब के जन्म को सौ वर्ष पूरे हो चुके थे. उनकी जन्म शती को लेकर बॉलीवुड की बेरूखी और उनकी पैदाइश वाले सूबे की मध्यप्रदेश की चुप्पी चौंकाने वाली रही मगर शुक्र है प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने उनके अवदान को याद रक्खा.
राजा दुबे
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