Friday, May 15, 2020

मज़दूर का पसीना




मज़दूर का पसीना बहता है तो कल-कारखाने चलते हैं...

मज़दूर का पसीना बहता है तो ऊंची-ऊंची इमारतें बुलंद होती हैं...

मज़दूर का पसीना बहता है तो खेत-खलिहानों में फसलें लहलहाती हैं...

मज़दूर का पसीना बहता है तो चमचमाते एक्सप्रेस-वे तैयार होते हैं...

लेकिन आज मज़दूरों का पसीना ही नहीं आंसू भी बह रहे हैं...

आज मज़दूरों के आंसू ही नहीं ख़ून भी बह रहा है...

रोज़गार खो चुके मज़दूर अपने घर जाने के लिए तरस रहे हैं...

कई-कई दिनों के भूखे-प्यासे चलते चले जा रहे हैं...

डंडे खाकर

लात सहकर

गाली सुन कर

बस चलते जा रहे हैं...

सरकार से भरोसा उठ रहा है

सिस्टम से भरोसा उठ रहा है

किसी एलान का, किसी आश्वासन का, किसी दावे का

अब असर नहीं हो रहा

इन्हें अब किसी तरह घर जाना है...

बस से... ट्रक से... साइकिल से या फिर पैदल

भुवन वेणु

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