ना रोज़गार रहा
ना छत रही
ना घर लौटने का ज़रिया मिला
बस एक सड़क है
जो घर की तरफ जाती है
कोई सिर पर सामान लादे
कोई गोद में बच्चा थामे
कोई चप्पल पहनें
तो कोई नंगे पांव
चले जा रहे हैं लोग
बेतहाशा
बेबस
कभी जिन सड़कों को बनाने में अपना पसीना बहाया था
आज उन हज़ारों मील लंबी सड़कों को उन्हीं मज़दूरों के पैरों ने नाप डाला है...
कभी घर-बार छोड़ कर रोजी-रोटी के लिए हज़ारों मील दूर आए थे...
महानगरों में आसमान छूती इमारतों को खड़ा किया...
ना जाने कितने लोगों का आशियाना तैयार किया...
कल-कारखानों में पसीना बहाया...
खेत-खलिहानों में फसलें उगाई...
लेकिन जब बुरा वक़्त आया तो सबने मुंह मोड़ लिया...
काम-धंधे बंद हुए तो छत भी छिन गई
दाने-दाने को मोहताज होने की नौबत आ गई
फिर एक ही आसरा दिखा...
अपनी मिट्टी
अपना घर
घर पहुंचने की इसी आस में लाखों-लाख मज़दूर चल पड़े
जिसे जो साधन मिला उससे निकल गया
और जिसे कुछ नहीं मिला वो पैदल ही निकल पड़ा
लेकिन मज़दूरों की नियति ही संघर्ष है
उनका ये पलायन भी संघर्ष है... दर्दभरा संघर्ष
भुवन वेणु
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