माता-पिता
होना आसान नहीं। बच्चे के साथ पैदा होनेवाली हर परिस्थिति नई होती है, लगभग
अप्रत्याशित होती है और हम उसके लिए तैयार नहीं होते हैं। काम, रिश्तों और अपनी
पसंद-नापसंद के बीच झूलते हुए, कभी-कभी पिसते हुए भी अपने मन और तन से बने उस बच्चे की खुशियों और जिद में खुद को
आसानी से देख लेते हैं हम। कई बार अचानक से महसूस होता है कि अरे मैं तो बिल्कुल ऐसी ही हूं या फिर मैं भी तो ऐसा ही कुछ करना चाह रही थी। बच्चे की इच्छाओं और जरुरतों को समझ पाना भले ही
मुश्किल ना हो लेकिन, पूरा कर पाना मुश्किल काम होता है। शायद इसलिए क्योंकि हमारी ईच्छाएं भी लगभग वैसी ही तो होती हैं। बस अंतर इतना है कि वक्त के साथ हम उन्हें मारना सीख जाते हैं। ऐसे में कई बार मन होता है कि अपने
मम्मी-पापा के पास जाउं और कहूं कि आपने मेरे लिए जो किया वो सही और गलत के पैमाने
से बहुत ऊपर की चीज़ है। धीरे-धीरे ही सही मैं समझ पा रही हूं वो सब कुछ आपने कभी
अनुभव किया होगा। कुछ बातों के अफसोस ताउम्र बने रहते हैं लेकिन, उसके लिए जिम्मेदार
शायद कोई नहीं होता।
दीप्ति
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