Monday, August 21, 2017

डूबती ज़िंदगी

कुछ कपड़े हैं...

कुछ अनाज बचाया है...

इस गठरी में भी कुछ छुपाया है..

देखा तो नज़र आए

थोड़े चावल...थोड़ा सत्तू...चूड़ा है थोड़ा

  नमक और चीनी भी है... लेकिन धीरे-धीरे घुल रही है


  एक कांधे पर बिटिया बैठी है...

  दूसरे पर सामान लदा है

  हाथ में गाय की रस्सी पकड़ी है

  पत्नी की गोद में बेटा है

  पानी सीने से ऊपर आ गया है

  जो खेत थे वो दरिया हो गए

  जो घर था वो उफनाई नदी साथ ले गई

  वो नींबू का झाड़...

  वो अमरूद का पेड़

  वो लौकी की लत्तर

  वो साग वो पत्तर

फिर ले गई अपने साथ

बार-बार नज़रें पीछे घूम जाती हैं

पानी में डूबे पैर ठिठकने लगते हैं..

ज़हन में उमड़े सैलाब में

मन बार-बार लौटने को बोल रहा है

लेकिन जाना तो है...

बच्चों के लिए, परिवार के लिए.. ख़ुद के लिए...

और उन सपनों के लिए
जो इस सैलाब को पार करते समय दिल में उमड़-घुमड़ रहे हैं

कि महीने दो महीने में फिर लौटूंगा..

जोड़ूंगा उस नीड़ को

फिर खेतों से अनाज उगाउंगा...

इस बार घर थोड़ा ऊंचा रहेगा..

क्योंकि बाढ़ तो नियति है...

जिसमें ज़िंदगी डूबती है.. उतरती है

-भुवन वेणु


2 comments:

Manisha said...

Bahut badhiyaa aur sahaj👍

Anonymous said...

I think this is one of the most important information for
me. And i'm glad reading your article. But should remark on some general things,
The site style is wonderful, the articles is really nice : D.
Good job, cheers