आपको आपके काम से
कितना ही प्यार क्यों न हो सुबह पांच बजे उठकर, घर के काम करके, मैट्रो में एक
घंटे खड़े रहकर यात्रा करना और सुबह सात बजे ऑफिस पहुंचा भारी ही लगेगा। ऐसे में
जब घर से निकलते वक्त पीछे से आपकी सालभर की बेटी मम्मा-मम्मा की आवाज़ के साथ
बिलख-बिलखकर रोए तो ऑफिस तक का ये सफर तनाव और आत्मग्लानि से भरा हुआ साबित होता
हैं। बच्चा भले ही अगले पांच मिनिट में चुप हो जाए लेकिन, आप पूरे दिन उसका वो
आंसू भरा चेहरा याद करते रह जाते हैं। अस्मि अब इस बात को समझ जाती हैं कि मम्मी
ऑफिस जा रही हैं। वो उस दौरान मुझसे ऐसी चिपकी रहती हैं जैसे बंदरिया से उसका
बच्चा। उसके मन में मेरे दूर जाने का डर कुछ ऐसा घर कर गया हैं कि वो मेरे घर पर
रहने पर भी मेरे पीछे-पीछे ही चलती रहती हैं। किचन से लेकर बाथरूम तक वो मेरे साथ
रहती हैं। मेरी मम्मी ने कभी नौकरी नहीं की। हमेशा वो मेरे लिए उपलब्ध रही। मैंने
कभी मां से दूरी के इस दर्द को महसूस ही नहीं किया। "नौकरी", "अपनी ज़िंदगी", "जीवन का हिस्सा" और "वक्त के साथ सब ठीक हो जाएगा" जैसे जुमलों के बीच कई बार मैं खुद को
आत्मग्लानि में डूबा हुआ पाती हूं। इस सबके बीच क्रिस्टीन आर्मस्ट्रॉन्ग जैसी
एथलीट और एक मां के वीडियो देखकर मैं खुद को दिलासा देती रहती हूं। ऑफिस में काम कर
रही मेरी जैसी मांओं से उनके अनुभव सुन-सुनकर खुद को समझाती रहती हूं। शायद सच में
ये सब वक्त की बात हैं। बच्चे परिस्थितियों से खुद जितनी जल्दी निपटना सीख ले
बेहतर होता हैं। ओशो के शब्दों में- हर किसी का अपना जीवन हैं। बच्चों से मोह और
उन पर अधिकार जमाना जितनी जल्दी हो खत्म कर देना चाहिए।
1 comment:
kya khoob likha hai. Friday, June 19, 2009 माँ के बिना... wala post or ye post dono ko mila ke padha to or be jayada afsos hua
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