द्रुपद चाहते हैं कि द्रौपदी का विवाह अर्जुन से
हो। इसलिए वो ऐसी प्रतियोगिता रखते हैं कि केवल अर्जुन ही जीत पाएं। तब तक द्रौपदी
भी मन ही मन अर्जुन से प्यार करने लगती है। ऐन स्वयंवर के वक्त मालूम चलता है कि
कर्ण भी प्रतियोगिता जीत सकता है और ऐसे में द्रौपदी झट से कर्ण की जाति को सवाल
बना देती हैं और द्रुपद भी अपनी अनचाही बेटी का समर्थन ये कहकर करते हैं कि “लड़की
किस कुल और किस व्यक्ति को चुनेंगी ये वो खुद तय करेगी”। ऐसा कहकर कर्ण
को बाजू कर दिया जाता है और अर्जुन मैदान में आते हैं। इस पूरे वाकये को देखकर
मेरे मन में ये ख्याल आया कि युग द्वापर हो या कलयुग, तथ्यों और रिश्तों को अपने
फायदे के मुताबिक़ मोड़ना हमेशा से ही चला आ रहा है। लड़का अगर माँ-बाप और बेटी
दोनों की पसंद का है तो उसकी जाति और उसमें मौजूद दोष भी मान्य है। एक-दूसरे की
पसंद की भरपूर इज़्जत की जाती है। बेटी भले ही कितनी भी अनचाही हो अगर शादी के लिए
वर चुनने में उसकी पसंद माँ-बाप को भा गई तो उसे दुलारी बनने में वक्त नहीं लगता।
महाभारत में ही दो अलग-अलग भाइयों के फैसलों को दो नज़रों से दिखाया गया है।
रुक्मणी का भाई जब बहन की पसंद का विरोध करता है तब वो ग़लत हो जाता है। लेकिन,
कृष्ण जब अपनी बहन को भगा देते हैं वो सही हो जाते हैं। महाभारत हो या आज का वक्त
समर्थ के लिए सब क्षम्य है। कहते है ना- “समरथ को ना दोष
गोसाईं”। जब यही रीत है तो क्यों हम ही कलयुगी कहलाते हैं। वो भी जब त्रैता
और द्वापर भी ऐसे ही नियमों और रिश्तों से भरा हुआ है...
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