अलार्म |
सुबह पांच के अलार्म से बस पांच मिनिट पहले ही
उसकी नींद खुल जाती थी। वो उठती और काम में लग जाती। घर के काम, बच्चों के काम, पति
के काम और खुद के भी कुछ-कुछ काम। भाग-भागकर ऑफिस जाती और शाम होते-होते घर का
सामान-सब्जी के थैलों और बच्चे का हाथ थामे घर लौटती। पति जो उसके ऑफिस जाने के
बाद उठाता और आने से पहले घर आ जाता था। आराम के साथ नौकरी करने का गुर उसे आता था
बस इसे उसने अपनी पत्नी को नहीं सिखाया था। वो चाय का भगोना चढ़ाती कि मित्रों की
टोली आ जाती। कोई भाभीजी से पकौड़ों की मांग करता, तो किसी को चाय पर चाय की तलब
लगती। वो मुस्कुराते हुए सब कर जाती। बाहर के हंगामे के बीच वो अंदर खाना बनाने से
लेकर बच्चे की पढ़ाई तक सब कुछ करती रहती। पति को साहित्य से लेकर संगीत तक हर बात
में रूचि थी। हंसी मज़ाक, खाना-पीना कहाँ से आ रहा है कौन बना रहा है इस बात में
उसकी कोई दिलचस्पी नहीं रहती। धुंए के बीच उस कमरे में वो हर पांच मिनिट में जाती
और चाय-प्लैट उठाकर अंदर ले आती। बच्चे को सुलाती और खुद ऊंघती रहती। पति की
रूचियाँ पूरी होते-होते रात हो जाती। वो सब कुछ समेटती और रात बारह बजे बिस्तर पर
लेटती। लेटने से पहले हमेशा की तरह एक काम हमेशा करती। घड़ी में पांच बजे का
अलार्म लगाना... वैसे उसकी नींद रोज़ाना ही सुबह पांच के अलार्म से बस पांच मिनिट
पहले ही नींद खुल जाती थी.......
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