उद्योग भवन मैट्रो स्टेशन |
आज भी सुबह मैं भीगते हुए, भागते दौड़ते, कभी
मैट्रो कभी बस बदलते हुए ऑफिस तक पहुंची हूँ। ऐसा पहली बार नहीं हुआ हैं और मैं
जानती हूँ कि आखिरी बार भी नहीं हुआ होगा। मैं किसी बीहड़ से शहर की ओर नहीं आ रही
थी जो मुझे इतना कष्ट भोगना पड़ गया। मैं तो बस पूर्वी दिल्ली से नई दिल्ली आ रही
थी। रोज़ाना इस सफ़र को पूरा करने में मैट्रो से मुझे 40 मिनिट लगते हैं। अगर बस
समय पर मिल गई तो उतना ही वक्त वो भी लेती है। लेकिन, कई बार लुटियन दिल्ली में घुसने
में मेरी और मेरे जैसे कइयों की हालत खराब हो जाती हैं। ये दिल्ली जो कभी
अंग्रेज़ों की पसंदीदा थी आज कल धरना और विरोध करनेवालों की हॉट स्पॉट बन गई हैं।
दिल्ली के किसी इलाके में कुछ हो धरना यही होगा। पूरा सुरक्षाबल यही इक्ठ्ठा हो जाता
है। दिल्ली मैट्रो जो 31 दिसम्बर को जश्न मनानेवालों से डरकर शाम 7 बजे मैट्रो बंद
कर देती है वो ऐसे धरने का सपना आने पर ही सबकुछ बंद करके यात्रियों को होनेवाली
असुविधा के लिए खेद का टेप बजाकर तानकर सो जाती हैं। दिल्ली में विरोध का होना
वैसे ही राष्ट्रीय मुद्दा है और अगर बैकग्राउंड में संसद भवन, नार्थ ब्लॉक या साउथ
ब्लॉक मिल जाए तो मीडिया के लिए भी ब्रेकिंग न्यूज़ है। ऐसे में इस इलाके में काम
करनेवालों के लिए आना-जाना दूभर हो जाता है। हालांकि हम संख्या में मुठ्ठीभर है।
लेकिन, हमारी समस्या बड़ी है। हालांकि हम तो आम है और, आम की खास तकलीफ भी आम ही
नज़र आती हैं।
खैर, इन
परेशानियों के बीच मुझे आज ये अहसास भी हुआ कि मैं एक इतिहास को रचते हुए देख रही
हूँ। संसद भवन और इंडिया गेट के प्रति लोगों के मन में आ रहे बदलावों, राजनीति में
हो रहे बड़े उलट-फेर की गवाह बन रही हूँ। इस इलाके में मेरा रोज़ाना का आना-जाना
अब मुझे सामान्य नहीं लगता। मुझे ऐसा महसूस होने लगा है कि मेरे ये छोटे-छोटे
अनुभव, परेशानियाँ, गुस्सा सब कुछ भविष्य में होनेवाले बड़े बदलाव की नींव है। मैं
भी इतिहास को बनते देख रही हूँ। मैं इतिहास का हिस्सा बन रही हूँ।
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