अरे! देखिए वो यहाँ तक कैसे पहुंच गई... उसने
जल्दबाज़ी में बाथरूम का नल बंद किया और आगे के कमरे में बैठे अपने पति को
चिल्लाते हुए आवाज़ लगाई। पति जो आराम से अखबार पढ़ रहा था हड़बड़ाते हुए आया। आठ
महीने की उनकी बेटी बाथरूम के आगे बैठी रो रही थी। उसने उसे गोद में उठाया लेकिन,
हर बार की तरह वो उससे चुप नहीं हो पा रही थी। इस बीच वो बाथरूम से बाहर निकली
बेटी को अपनी गोद में लिया और बेडरूम में घुस गई। बेटी को चुप करके उसे झूले में
बिठाकर वो किचन में घुस गई। नहाने जाने से पहले गैस पर चढ़ी सब्जी नीचे से कुछ जल
गई थी। उसने कढ़ाई हटाई और तवा चढ़ा दिया।
इस तरह से पति पर चिल्लाना और झल्लाना अब रोज़ की
आदत हो गई थी। उस वक्त उसकी आवाज़ ऊंची नहीं थी बल्कि वो मन से, झल्लाकर, ज़ोर से
चिल्लाई थी। वो जानती थी कि उसके पति पर इस बात का कोई असर नहीं हुआ होगा। इस बात
से वो और खीजी हुई थी। मन को शांत करते हुए उसने एक बार फिर आवाज़ लगाई। “आप
चार परांठे ही लेकर जाएंगे या और...” पति का वहीं संक्षिप्त-सा जवाब “नहीं
बस ठीक है चार”।
वो जवाब जानती थी बस कुछ बात हो सकें इस उम्मीद
में सवाल कर दिया था। उसने टिफिन पैक करके पति को विदा किया और बेटी के कामों में
लग गई। दोपहर तक वो पति, बेटी और घर के कामों में उलझी रहती थी। दोपहर में बेटी के
सो जाने के बाद हमेशा की तरह उसने अपने लिए कड़क कॉफी बनाई और, पिछले चार महीने से
चल रहा उपन्यास पढ़ने के लिए उठाया। चार या पांच पन्नों से ज्यादा वो कभी नहीं पढ़
पाती थी। कभी दूधवाला आ जाता था, तो कभी कोई और। बेटी के उठने और रोने का तो कोई
समय था ही नहीं।
शादी के बाद जब वो मुंबई से इस छोटे से शहर में
आई थी तो पहले पहल उसे बहुत अजीब लगा था। लेकिन, वो हमेशा से ही आराम से रहना
चाहती थी। लिखना चाहती थी, पढ़ना चाहती थी। उसे लगा कि यहाँ रहकर वो ये सब तो कर
ही लेगी। और, अपने शांत स्वभाव के चलते वो हमेशा से ही एक ऐसा जीवनसाथी चाहती थी
जो उसी की तरह संयमित हो। लेकिन, शांत होने और चुप होने में अंत होता है। और, ये
अंतर उसे शादी के बाद समझ आया। मन की बात तो वो बोल ही लेती थी लेकिन, उसका पति
कुछ बोलता ही नहीं था। जैसे मन में उसके कुछ हो ही ना। रोज़ाना बस एक-सा ढर्रा।
सुबह उठना, घर के काम निपटाना, पति को टिफिन बनाकर देना और दिनभर उसके आने के
इंतज़ार में किताबों में डूबे रहना। उसे ना तो टीवी का शौक था और ना ही आसपास रह
रही महिलाओं की गैंग में दिलचस्पी। वो लिखने और पढ़ने के अलावा कुछ नहीं करती।
उसने एक दो बार अपना लिखा उसे पढ़ाने की कोशिश भी की। लेकिन, उसे अखबार पढ़ने और
बैलेन्स शीट में आंकड़े भरने के अलावा किसी चीज़ में दिलचस्पी नहीं थी। शादी के
तीन महीने बाद ही उसे मालूम चला कि वो प्रेगनेन्ट है। उसे लगा कि शायद इस बात से
दोनों के बीच की चुप्पी टूट जाए। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ। पूरी प्रेगनेन्सी वो
यूँ ही किताबों में डूबी रही। बेटी के आ जाने का भी रिश्ते पर कोई असर नहीं पड़ा।
उनके बीच का सर्द अहसास वैसा ही बना रहा। लेकिन, बेटी के आने के बाद उसके मन की
शांति खत्म होने लगी थी। बेटी ने उसके पढ़ने और लिखने के वक्त पर कब्ज़ा जमा लिया
था। वो वक्त जिसे वो अपने पति के लिए खर्च करने को तैयार थी। लेकिन, अब उस वक्त
में हो रही दखल उसमें खीज पैदा कर रही थी।
लेकिन, इन आठ महीनों में वो इस बात के लिए भी खुद
को तैयार कर चुकी थी। उसका पढ़ना चार पन्नों और लिखना हफ्ते में एक बार में सीमित
हो गया था।
शादी के इन सालों में वो ये बात समझ चुकी थी कि पति
की दिलचस्पी ना उसमें थी, ना बेटी में। वो घर में कब आता और क्या करता इस बात में
उसकी दिलचस्पी खत्म हो चुकी थी। वो बेटी को तब ही गोद में लेता जब वो रो देती या
घर के किसी कोने से वो ऐसा करने के लिए चिल्लाती।
ऐसी ही एक अकेली दोपहर में उसके घर की घंटी बजी।
वो पढ़ने के लिए बस बैठी ही थी। चिढ़ते हुए उसने दरवाज़ा खोला तो देखा एक अनजान
वृद्ध महिला सामने खड़ी है। बातचीत से मालूम चलाकि वो मिसेज नायर है जो बाजूवाले
घर में रहने आई हैं। यहाँ उनके पति ने रिटायरमेन्ट के बाद किसी निजी कंपनी को जॉइन
किया है। बेटा विदेश जा चुका है। मिसेज नायर को कॉफी पीने का मन हुआ था और, उनके
घर दूध खत्म हो चुका था। उसने उन्हें अपने ही घर में कॉफी का न्यौता दे दिया। ये
पहली बार था कि इस शहर में किसी से उसने बात की हो। औपचारिक रुप से शुरु हुई ये
कॉफी मुलाकातें थोड़े ही दिन में रोज़ाना की बात हो गई। मिसेज नायर एक खुशमिजाज़
महिला थी। हमेशा हंसती मुस्कुराती रहती। खूब शॉपिंग करती थी, अच्छा संगीत और अच्छी
किताबों का उन्हें शौक था। उसने कभी उन्हें पति के साथ नहीं देखा। बेटे की बात भी
वो बहुत ही कम छेड़ती थी। धीरे-धीरे उन्होंने उसकी बेटी से भी दोस्ती गांठ ली थी।
बेटी से दोपहर की इस दोस्ती के चलते उसको ये फायदा हुआ कि अब वो नियमित लिखने लगी
थी। मिसेज नायर उसके लिखे ड्राफ्ट को बड़े ध्यान से पढ़ती, अपने कमेन्ट देती और
फिर दोनों मिलकर उसे ठीक करती। अब अपने पति पर चिढ़ना और झल्लाना भी उसने बंद कर
दिया था।
एक दोपहर मिसेज नायर चहकते हुए उसके पास आई।
उन्होंने बताया कि उसके लिखे उन कुछ बेतरतीब पन्नों को उनकी एक दोस्त छापना चाहती
है। किसी प्रकाशन संस्थान में उनकी दोस्त सलाहकार थी और, मिसेज नायर के कहने पर ही
उसने उन पन्नों को पढ़ा था। वो कुछ चौंक-सी गई। उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मिसेज
नायर ने उसे कुछ समझने या बोलने का मौक़ा भी नहीं दिया। हड़बड़ी में उससे उसकी कुछ
तस्वीरें मांगी और उसके पीछे ही किताब का शीर्षक और किसे वो इसे समर्पित करेगी ये
लिखने को कहा। उस वक्त उसे उस अधेड़ उम्र की महिला के चेहरे की चमक के अलावा कुछ
और नहीं दिखाई दे रहा था- उसने “दोपहर की धूप” और मिसेज
नायर के लिए लिख दिया। उनके चेहरे की मुस्कान कुछ और बढ़ गई।
अगले दोपहर वो उसके घर नहीं आई। बेटी को सुलाकर
पहली बार वो उनके घर गई। मिस्टर नायर घर में ही थे। बातचीत से मालूम चला कि पिछली
रात से ही मिसेज नायर की तबीयत कुछ खराब है। वो अंदर उनके कमरे में गई। उनका कमरा
किताबों और रिकार्ड्स से भरा पड़ा था। मिसेज नायर के आग्रह पर उसने वहीं दोनों के
लिए कॉफी बनाई। दिन ब दिन उनकी तबीयत बिगड़ती जा रही थी। वो उनकी तबीयत के लिए
परेशान रहती और मिसेज नायर किताब के प्रकाशन के लिए।
एक दिन अचानक सुबह-सुबह घर की घंटी बजी।
हड़बड़ाते हुए उसने दरवाज़ा खोला। सामने कुरियरवाला खड़ा था और, उनके हाथ में “दोपहर
की धूप” का बंडल था। उसका
चेहरा खिल गया। वो भागते हुए मिसेज नायर के घर पहुंची। गेट पर ही उसके कुछ हलचल
महसूस हुई। सुबह-सुबह मिसेज नायर को दिल दौरा पड़ा था और अब वो इस दुनिया में नहीं
रही थी।
कुछ देर तक वो गेट पर ही खड़ी रही। मिस्टर नायर
हमेशा की तरह चुपचाप डॉक्टर के पास खड़े हुए थे। उसे सामने देख उन्होंने उसे अपने
पास बुलाया। उनके हाथ में एक पुर्जी थी। जो मिसेज नायर ने उसके लिए लिखी थी। “मेरी
सारी किताबें अब से तुम्हारी। लिखना मत छोड़ना मेरी दोपहर की धूप.... “
2 comments:
बेहतरीन. ठीक नहीं है, पर बार बार तथाकथित साहित्य से तुलना करने का मन करता है जहां स्त्री पुरुष रिश्तो के परे पात्रों के जीवन में कुछ है ही नहीं.. लिखना मत छोड़ना मेरी दोपहर की धूप...
बेहतरीन. ठीक नहीं है, पर बार बार तथाकथित साहित्य से तुलना करने का मन करता है जहां स्त्री पुरुष रिश्तो के परे पात्रों के जीवन में कुछ है ही नहीं.. लिखना मत छोड़ना मेरी दोपहर की धूप...
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