सुबह छः बजे से उठकर, साढ़े नौ बजे तक ऑफिस
पहुंचकर, लोकेशन पर पौने ग्यारह से तैनात होने के बाद जब किसी वीआईपी मेहमान के
चक्कर में कार्यक्रम ड़ेढ घण्टे बाद शुरु हो तो गुस्सा और खीज आना लाज़मी है। वैसे
भी सुर्खियों से परे के ज़रिए सरल लोगों और मुद्दों को कवर करते-करते कई कैमरों और
पत्रकारों के बीच घुसकर किसी वीआईपी को शूट करना मेरे लिए मुश्किल होता है। कल, जब
समर्थ (निःशक्तजनों का दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यक्रम जोकि दिल्ली के सिरी फार्ट
ऑडिटोरियम में चल रहा है) के उद्घाटन समारोह के लिए मुझे मेरी टीम के साथ इतना
इंतज़ार करना पड़ा तो उस शूट में मेरी दिलचस्पी खत्म हो चुकी थी। जैसे ही उद्घाटन
के नाम पर नेताओं के भाषण शुरु हुए तो अचानक ही मेरी पलकें भारी होने लगी। ऐसी
नींद कि आँखों को खुला रख पाना मुश्किल हो रहा था। जैसे-तैसे भाषण खत्म हुए और
विकलांग युवाओं और बच्चों ने अपनी प्रस्तुतियाँ शुरु की। अचानक ही मेरी सारी नींद
उड़ गई। अलग-अलग तरह की विकलांगताओं से जूझ रहे ये सभी कलाकारों किसी भी तरह से उन्नीस
नहीं थे। किसी ने सुन्दर कविता सुनाई, तो किसी ने नृत्य प्रस्तुति दी। लेकिन,
कार्यक्रम के अंत में जब ग्रुप डान्स की प्रस्तुति शुरु हुई तो पहले तो मुझे यकीन
ही नहीं हुआ कि ये असल में हो रहा है। कुछ बच्चे व्हीलचेयर पर थे, कुछ बैंसाखियों
पर, किसी के हाथ नहीं थे, तो कोई बच्चा डाउन सिन्ड्रोम था। सभी बच्चे एक दूसरे को
सहारा देते हुए अलग-अलग गानों पर नाच रहे थे। इन सबके बीच एक छोटी-सी बच्ची जिसके
दोनों हाथ नहीं थे बीच-बीच में आकर नाच रही थी। उस प्यारी-सी बच्ची को देखकर अचानक
ही मेरे आँखों से धल-धल आंसू बहने लगे। थोड़ी देर बाद मुझे लगा कि मैं शूट पर हूँ
और, मेरे ये आंसू शायद आसपास बैठे लोगों को अजीब लगे। मैंने जैसे ही इधर-उधर नज़र
घुमाई देखा सब चुप थे। सबकी आँखे नम थी। इंतज़ार के फल में मिला बच्चों का वो
कार्यक्रम मेरी ऊब को खत्म कर चुका था। औपचारिक कार्यक्रम के बाद जब इन जैसे अन्य
कई हुनरकारों से मिलने का मौक़ा मिला तो मन और खुश हो गया। दूर से देखने में हरेक
में कोई ना कोई कमी नज़र आ जाएगी। लेकिन, जैसे ही हम इनके पास जाते, बातें करते,
मालूम चलता कि इनके लिए तो हर कमी आभासी है। एक बोझिल शुरुआत के बाद इन
आत्मविश्वासी लोगों से मिलना और बात करना सुखद रहा।
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