3 दिसम्बर को पूरी दुनिया में निःशक्तजनों की ओर
से और निःशक्तजनों के लिए किए गए कामों को सम्मानित किया जाता हैं। इस मौक़े पर
दिल्ली के विज्ञान भवन में भी एक ऐसे ही कार्यक्रम का आयोजन हुआ। राष्ट्रपति ने
देश के अलग-अलग कोनों से आए निःशक्तजनों को उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मानित किया।
कार्यक्रम के दौरान बंटी पुस्तक में हरेक के संघर्ष की कहानी छपी हुई थी। उस
पुस्तक को पढ़कर और उन लोगों से मिलकर मैं बहुत भावुक हुई। कार्यक्रम से पहले जो
एक घंटे तक मैं, पूरी टीम के साथ इंतज़ार में बैठी रही वो भी मुझे सफल ही लगा।
शिक्षा से लेकर व्यवसाय तक हरेक क्षेत्र में निःशक्तजनों ने झंडे गाड़ रखे हैं।
लेकिन, इस भावुक कार्यक्रम में जैसे ही नेताओं और अधिकारियों के भाषण शुरु हुए
मेरी दिलचस्पी खत्म होने लगी। लंबे, उबाऊ और ग़लत हिन्दीवाले भाषणों में केवल अपने
मंत्रालयों के गुणगान और कार्यों का लंबा ज़िक्र था। इन उबाऊ भाषणों के बाद वो हुआ
जिसने मेरे सर में भयानक दर्द पैदा कर दिया। कार्यक्रम के अंत में खाने का इंतज़ाम
किया गया था। मैं और मेरी टीम जैसे ही बाहर निकली खाने के पंडाल में लोग एक-दूसरे
से हाथापाई करते मिले। खाने के स्टॉल पर लोगों आपस में गुथे हुए थे। वेटर खाना रखे
उसके पहले ही खाना लूटा जा चुका था। और, इस सबके बीच वो सभी निःशक्तजन जिन्हें
राष्ट्रीयस्तर के पुरस्कार मिले थे एक कोने में चुपचाप खड़े हुए थे। कुछेक के साथी
उस खाने की लड़ाई में विजयी हुए थे सो, कुछ खाना खा रहे थे। बाक़ी अपने साथियों के
साथ बाहर निकलकर कुछ खाने की बातें कर रहे थे। जिनके लिए सम्मान में कुछ देर पहले
दर्शक तालियाँ पीट रहे थे। खाने के पन्डाल में वहीं हाथ उन्हें पीटने के लिए तैयार
नज़र आ रहे थे... और, मैंने केवल एक कॉफी पी क्योंकि वहीं एक कोना था जिस पर लोगों
की नज़र नहीं पड़ी थी...
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