प्रतिबद्ध-7 |
कुछ करते रहना, मन को संतुष्ट करते रहना, कुछ नया होते रहना, सबसे जुड़ा रहना ज़रूरी है। प्रतिबद्ध 7 की प्रति जब हाथ में ली तो यही महसूस हुआ। इतने कम समय में बाबा नागार्जुन पर लिखे लेखों और उनकी लिखी रचनाओं को जुटाकर न्यूनतम संसाधनों में रहते हुए एक पत्रिका का रूप देना पहली नज़र में नामुमकिन काम ही लगेगा। लेकिन, माँ-पापा ने बिना किसी तीसरे से मदद लिए इस काम को पूरा किया। लोगों से बात करना, लगभग खत्म हो चुके नेटवर्क ज़िंदा करना, पत्रिका की प्रूफ रीडिंग से लेकर उसकी कम्पोज़िंग तक सब काम माँ और पापा ने मिलकर किया। साल 1977 में प्रतिबद्ध का पहला अंक प्रकाशित हुआ था। पापा एक लेखक होने के साथ ही सामाजिक तौर पर बहुत ही सक्रिय व्यक्ति भी रहे हैं। लेकिन, इस सक्रियता और लेखन के क्षेत्र में पापा के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रही माँ को देखकर मन ज़्यादा खुश होता है। शादी के महज एक साल बाद ही दोनों ने मिलकर इस अनियतकालीन पत्रिका की शुरूआत कर दी थी। पैसों की कमी और ज़िम्मेदारियों के बीच इन सैंतीस साल में माँ-पापा ने अब तक सात अंक निकाले हैं। आंकड़ों के हिसाब से आपको ये संख्या कम लग सकती है। लेकिन, दोनों ने अपनी-अपनी नौकरियों, पारिवारिक और सामाजिक ज़िम्मेदारियों के बीच से समय को चुराकर प्रतिबद्ध के ज़रिए रचनात्मकता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को साबित किया हैं। चिकने कवर और रंगीन पृष्ठोंवाली हिन्दी मैग्ज़ीन्स के बीच बाबा नागार्जुन को समर्पित प्रतिबद्ध 7 आपको खुरदुरी-सी महसूस होगी। माँ और पापा को अफसोस है कि पत्रिका की गुणवत्ता वैसी नहीं है जैसी वो चाहते थे। आज के प्रकाशन बाज़ार में लोगों की चालाकियों के बीच खुद को ठगा-सा भी महसूस कर रहे हैं। लेकिन, बाबा नागार्जुन की तरह इस खुरदुरी-सी पत्रिका का हरेक लेख अपने आप में सम्पूर्ण है। पन्नों की गुणवत्ता कागज़ की क्वालिटी से नहीं बल्कि उस पर छपे विचारों से होती हैं। मेरे लिए तो प्रतिबद्ध एक सम्पूर्ण मानसिक खुराक है। अगर आप प्रतिबद्ध 7 की प्रति प्राप्त करना चाहते हैं तो प्रतीक्षा, चूनापुर रोड, मधुबनी, पूर्णियाँ-854304 पर लिखकर या venubhuwan@gmail.com या dipttidubey@gmail.com पर सम्पर्क कर सकते हैं। कीमत 20 रुपए मात्र।
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