मेरे लिए समन्वय एक मौक़ा रहा। मौक़ा भुवन को
अपनी तनाव और डेडलाइन भरी ज़िंदगी से एक दिन के लिए बाहर निकालने का। अपने शहर में
कई सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रमों का हिस्सा और आयोजक रह चुके भुवन ने
समन्वय के चलते पहली बार दिल्ली का इंडिया हैबिटैट सेन्टर देखा। हालांकि मैंने भी
इसे अपने कार्यक्रम के शूट्स के चलते ही देखा और समझा है।
लेकिन,
समन्वय में पहुंचने के बाद वो मुझे केवल भुवन के लिए नहीं बल्कि मेरे लिए भी एक
सुनहरा मौक़ा लगा। मौक़ा साहित्य और भाषा की समझ रखनेवालों को सुनने का, मिलने का,
कुछ नया सीखने का। समन्वय की पहली वार्ता भाषा में भाषा ( लैन्गवेज इन टू
लैन्गवेज) सुनी। महमूद फ़ारूखी को मैं पहले भी सुन चुकी हूँ। दास्तानगोई के चलते
मिल भी चुकी हूँ। लेकिन, बाक़ियों को पहली बार सुना। अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा जोकि
अंग्रेज़ी के लेखक उन्हें हिन्दी में बात करते देखना मेरे लिए सुखद था। आज के
वक़्त में हिन्दी की खाने और कमानेवाले जो अंग्रेज़ी झाड़ते हैं, उन्हें अरविंद को
सुनना चाहिए। पहली बार मालूम हुआ कि देश में अंग्रेज़ी में कुछ लिखना और छपना भी
एक वक्त मुश्किल काम था। माधवी सरदेसाई ने गोवा और कोंकणी के बारे में जो बातें
कहीं वो भी मेरे लिए नई थी। इसके बाद कुछ देर सुषमा असुर को सुना।
समन्वय में लगे किताबों के स्टॉल भी छाने।
गुलज़ार के लिखे गद्य और पद्य का नाट्य रुपान्तरण किताबों के रूप में प्रकाशित
देखा। पेन्गविन के स्टॉल पर दर-दर गंगे देखकर खुश हुए। और, सबसे खास रही फेसबुक और
शूट के बहाने मित्र बने लोगों से अनौपचारिक मुलाकातें। राजकमल के स्टॉल पर रविकांत
से मिली तो विनीत को पीछे से टोककर रोका। सबसे मज़ेदार रहा अदिति से मिलना। जो है
तो मेरी फेसबुकवाली दोस्त लेकिन, उन्होंने पहचाना भुवन को देखकर। ये था विशुद्ध
सोशल नेटवर्किंग का कमाल। फेसबुक से बने ऐसे ही एक मित्र सत्यानंद से मिलना तो
नहीं हो पाया लेकिन, उन्हें दूर से ही कार्यक्रम के समन्वय में तल्लीन देखकर अच्छा
लगा।
समन्वय आपको न सिर्फ़ मानसिक खुराक देगा बल्कि यहाँ
बोलने और सुनने आएं हरेक व्यक्ति से आपको ये जोड़ेगा भी।
वैसे
भी एक बार जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल को देखने के बाद मन में इस तरह के साहित्यिक
आयोजन के प्रति उदासीनता-सी आ गई थी। किसी कॉकटेल पार्टी से लगनेवाले जयपुर
लिटरेचर फेस्टिवल में हमें साहित्य के नाम पर एक अलग ही कॉर्पोरेट दुनिया का अनुभव
हुआ था। ऐसे में समन्वय में बीता हमारा समय हमारे मन में उम्मीद पैदा कर गया है कि
हर सम्मेलन एक सा नहीं होता।
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