मैट्रो स्टेशन के टोकन काउन्टर पर एक शारीरिक रूप
से विकलांग व्यक्ति टिकिट लेने आता है। टिकिट लेते ही उसके बिना कुछ कहे एक सहायक
मिल जाता है। उससे पूछता है कि उसे कहाँ जाना है। अगर ज़रूरत हुई तो उसके लिए
व्हीलचेयर लाता है। हर मैट्रो स्टेशन पर स्वचलित सीढ़ियाँ हो न हो लिफ्ट ज़रूर है।
लिफ्ट के बाहर साफ-साफ शब्दों में लिखा हुआ है विकलांगों, वरिष्ठ नागरिकों और
ज़रूरतमंदों के लिए ( हालांकि हाथ-पैर और उम्र के लिहाज़ से तन्दुरूस्त इसका
इस्तेमाल ज़्यादा करते हैं)। खैर, उस लिफ्ट से मैट्रो कर्मचारी उसे स्टेशन तक लाता
है। महिला कोच के पहले गेट पर उसके साथ खड़ा रहता है। मैट्रो रूकती है और कर्मचारी
यात्री को ज़रूरतमंदों के लिए निर्धारित सीट पर बिठाकर, अपनी व्हीलचेयर लेकर चला
जाता है। यात्री को जिस स्टेशन तक जाना होता है वहाँ पहले से ही एक कर्मचारी खड़ा
होता है। अगर नहीं हुआ तो ट्राइवर उतनी देर तक ट्रेन रोके रखता है। कर्मचारी आता
है और यात्री को अपने साथ लेकर चला जाता है। विकलांगों के प्रति हमारे देश में
इतनी संवेदनशीलता दिखाई देना बहुत दुर्लभ और सुखद है। सन उनसठ में प्रकाशित राग
दरबारी में लंगड के किरदार के ज़रिए विकलांगों के प्रति भारतीय समाज की संवेदहीन
सोच को श्री लाल शुल्क ने जिस तरह बयां किया था उस सोच में बहुत बदलाव अब भी नहीं
आया हैं। ऐसे में दिल्ली मैट्रो का उनके लिए संवेदनशील होना और इस मदद को अपना काम
समझकर करना शायद रोज़ाना ट्रेन में सफ़र कर रहे यात्रियों के मन को भी एक दिन
संवेदनशील बना सके...
1 comment:
दिल्ली में रहते हुए मुझे इस बात का इल्म नहीं था, बहुत बढिया जानकारी दी आपने.
इस बात पर गर्व हो सकता है : मेरा मेट्रो
जानकारी के लिए आभार.
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