Tuesday, May 7, 2013

अब हे, तो हे...


लगभग तीन साल बाद मालवा अंचल में घुसते ही मेरे कानों में जैसे रस-सा घुलने लग जाता है...

अरे भैया रेन दो तुम तो...
एसे केसे ये हो सकता हे...
तुमारा मन करे तो कर लेना नई तो रेन देना...

शब्दों का और मात्राओं का ठेठ मालवी अंदाज़ अंदर तक मुझे खुश कर जाता है। है को है बोलने की कोई पाबंदी नहीं जाती है, वहाँ पहुंचते सब कुछ हे हो जाता है। देवास के शुरु होने से पहले ही नज़र आनेवाली पवनचक्कियाँ मन खुश कर देती है। माता की सीढ़ियाँ और भगवती सराय न जाने कितनी ही यादों को ताज़ा कर देती हैं। देवास एकदम खालिस ननिहाल है। वहाँ पहुंचते है मन की थकान खत्म हो जाती है। हाँ, आलस बना रहता है, जैसे शहर की आबोहवा ही जानती हो कि ये तो दीप्ति का ननिहाल है। यहाँ कोई तनाव उसे छू भी नहीं सकता। शायद ही कोई होगा जो घर के पीछे जा रही गंदी गली को देखकर खुश होता होगा। लेकिन, मेरे लिए तो वो गली भी बहुत खास थी। बच्चों की तरह में भुवन को हर चीज़ दिखा रही थी, बता रही थी। मौसी के घर का झूला, आई-दादा की जवानी की तस्वीरें सब कुछ... एक ओर देवास में जहाँ आलस भरा आराम है वहीं इंदौर में घुसते ही मालवा की असल आराम पसंद भागती ज़िंदगी नज़र आती है। यहाँ हर काम समय पर होता है, सबके पास काम है, कोई भी खाली नहीं... लेकिन, भागता कोई नहीं हैं। सब कुछ यहाँ तसल्ली से होता है। मौसी के घर से भी मेरी कई यादें जुड़ी हैं। अब वो घर तो छूट गया लेकिन, वो सड़कें, वाइट चर्च नर्सरी, काला घोड़ा, एम वाय, राजवाड़ा, विजय चाट हाउस सब कुछ मैं बार-बार भुवन को चहक-चहककर दिखा रही थी। विजय चाट हाउस पर मैंने उसे अपने पसंद की आलू पेटिस खिलाई, उसे हरे छोड़ और बटले का मतलब समझाया। खजराना में गणपतिजी के दर्शन किए। कई साल बाद मालवा की मेरी ये यात्रा मेरे लिए अनोखी ही रही। कभी सोचा ही नहीं था कभी इन शहरों में ऐसे किसी के साथ जाऊंगी जो मेरा साथी तो होगा लेकिन, जिसने ये सब कुछ कभी देखा ही नहीं होगा। भजिए और जलेबी का गरम नाश्ता, आमरस के साथ पूड़ी, दाल-बाफले, खाने के साथ सेव और पोहे पर डला हुआ जीरावन.... हर बात पर मैं खुश हुई, हर बात पर मैंने चमकती आंखों से भुवन को देखा...

No comments: