Monday, April 22, 2013
मुझसे मत डरना...
बात कुछेक दिन पहले की होगी। कुछ दोस्तों के साथ मैं स्टेशनरी स्टोर पर खड़ा था। तब ही एक पांच साल की बच्ची आई और बोली कि उसे एक लीटर कवरिंग पेपर चाहिए। हम सभी हंसने लगे। मैंने पूछा लीटर कि मीटर... वो शरमा गई। हम उससे बहुत देर तक बात करते रहे। उसके आगे के दांत नहीं थे उस पर भी उससे बातें की। फिर वो बच्ची कवरिंग पेपर लेकर चली गई। मैं उसे देर तक देखता रहा। मन में बच्ची का हंसता, शरमाता चेहरा आज भी ताज़ा है। पिछले चार-पाँच दिन से खबरों में आ रही बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाओं ने अचानक मेरे मन में उस बच्ची का चेहरा घुमा दिया। ऐसा लगा कि अगर आज वो किसी दुकान पर मिल जाए तो शायद ही मैं उससे बात कर पाऊँ। शायद मेरा उसे मुस्कुराकर देखभर लेना उसे सहमा दे। उसकी माँ, शायद ही उसे अब उस दुकान तक भेजे। बच्ची को देखकर मुस्कुरानेवाले हर पुरुष को देखकर शायद उसकी माँ सकुचाए। मैं कितना ही उसे क्यों न समझाऊँ कि मैं तो तुम्हारा दोस्त हूँ। बस तुम्हारी प्यारी-सी मुस्कान देखने के लिए तुमसे बात कर रहा हूँ... वो शायद ही मेरी बात को सुने। मन में एक अजीब-सी कसक, एक अजीब-सी चिढ़ पैदा हो गई है। अपने पुरुष होने से... असहाय-सा महसूस होता है... लगता है कि अपनी ओर उठनेवाली शक़ की नज़र को कैसे विश्वास में बदलूँ...
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