घर बनाने और गाड़ी खरीदने के लिए जैसे भर-भरकर
रूपए होना ज़रूरी है। ठीक वैसे ही एक सामान्य स्तर का मौलिक नागरिक बोध ( सिविक
सेन्स) भी होना ज़रूरी होना चाहिए। जेब में पैसे से ज्यादा ज़रूरी होना चाहिए। पाण्डव
नगर गणेश नगर जहाँ मैं कुछ सात साल से रह रही हूँ इस मुद्दे पर शोध करने और जो लोग
इस बात को नहीं मानते हैं उन्हें मनवाने के लिए सबसे अच्छा उदाहरण है। कभी भी,
किसी भी दिन, किसी भी मौसम में, किसी भी बात पर मकान का मालिक अपना मकान तोड़ना
शुरु कर देता है। कभी उसकी मंज़िलें बढ़ाने के लिए, तो कभी कमरों को छोटा करके
ज्यादा से ज्यादा किराएदार हथियाने के लिए। अचानक एक दिन जब आप नहाए-धुआए घर से
निकलते है तो मकान के टूटने का मलबा और धूल आपके नहाने को व्यर्थ करने के लिए
तैयार रहती हैं। कभी भी कोई भी अचानक सड़क पर मशीन लगाकर बोरिंग करवाने लगता है,
तो कभी घर के बाहर लाउड स्पीकर लटकाकर भजन करने। घर के नीचे दुकान तो खैर कोई बड़ी
बात नहीं है लेकिन, दुकान का सामान सड़क तक सजाकर रखना जैसे शान की बात होती है। लेकिन,
अगर आप इस मुगालते में हैं कि सड़क पर फैले मलबे और उड़ रही धूल से बचना ही केवल
लक्ष्य है तो आप ग़लतफहमी में है। घर के आगे की सड़क यहाँ लोगों को मुफ्त में मिली
हुई लगती हैं। यहीं वजह है कि उस पर वो अपनी बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ खड़ी करते हैं।
उसे रविवार को पानी ढोल-ढोलकर धोते हैं और रोज़ाना रात को उनके बच्चे उसमें यो यो
हन्नी सिंह के गाने बजाते है और पूरे मोहल्ले में उसे घुमाते हैं। दिन के वक्त में
भी आलम कुछ ऐसा होता है कि मलबे और गाड़ियों के बीच में से अगर आप निकल सकते हैं
तो निकल जाइए। एक मोहल्ले को कैसा होना चाहिए, एक घर को कैसा होना चाहिए इस बात से
इन्हें कोई लेना-देना नहीं हैं। वो न सिर्फ़ अपने किराएदारों को सीलनभरे कमरों में
रखते हैं बल्कि खुद भी उन्हीं में रहना पसंद करते हैं। हर महीने हाथ में आनेवाला
पैसा इनके लिए जीवन जीने के स्तर से बड़ी बात मालूम होती है।
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