आज सुबह वाले शो में स्पेशल छब्बीस देखकर आए। हॉल
में कुल जमा दस दर्शक ही होगे। फिल्म के प्रोमो ही इतनी जानदार लगे थे कि फिल्म तो
देखना बनता ही था। आज के वक्त में जहाँ फिल्मों के जोरदार प्रमोशन किए जाते हैं और
उसका सौ करोड़ का बिज़नेस तो पक्का ही होता है। फिल्मों की बेसिर-पैर कहानी और जबरिया
डांस नंबरों के बीच स्पेशल छब्बीस ये साबित करती है कि असली दम केवल कहानी में
होता है। बाक़ी तो हर चीज़ केवल सजावट का काम करती है। और, इस फिल्म की ये सजावट
यानी कि कॉस्टिंग इसे निखार रही है। अनुपम खेर के झुके हुए कंधे और मनोज बाजपाई के
स्वेटर सब कुछ... छोटी से छोटी बात का ध्यान ऐसे रखा गया है कि आप चाह कर भी कहीं
कोई लूप होल नहीं खोज सकते है। नीरज पाण्डेय की कहानी और उसे कहने के तरीके को
देखकर लगा कि अभी भी बहुत अच्छा जिन्दा है, बाक़ी है... ए वेन्सडे जैसी फिल्म के
बाद स्पेशल छब्बीस में भले ही थोड़ा-सा गानों और प्यार-मोहब्बत का गैर ज़रूरी
तड़का लगा हो। फिर भी, फिल्म की कहानी और उसका निर्देशक ही इस फिल्म का हीरो है।
बाक़ी मनोज बाजपाई या अनुपम खेर और बीच-बीच में अक्षय कुमार जैसे कलाकार तो चैरी
ऑन केक होते ही है। हाँ जिमी शेरगिल जैसे अच्छे कलाकार को कम फिल्मों में देखकर
अफसोस होता है। ऐसा महसूस होता है कि तिग्मांशू धूलिया और नीरज पाण्डेय को ही उनकी
प्रतिभा का अंदाजा है। जिमी एक ऐसे कलाकार रहे है जिन्होंने हमेशा ही अच्छी अदाकारी
की है। लेकिन, फिल्में उन्हें उस हिसाब से कम मिली है। बाक़ी स्पेशल छब्बीस एक बार
तो ज़रूर देखिएगा। क्योंकि कुछ भी हो जाए असली ताक़त केवल पटकथा (स्क्रीप्ट) में
होती है...
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