Tuesday, January 29, 2013
अतिवाद में भी भेदभाव...
पिछले कुछ दिनों से मनीषा पांडे, आर. अनुराधा और दीप्ति सहित कई महिला लेखिकाओं के लेख फेसबुक से लेकर ब्लॉग्स तक पर पढ़ने को मिले.. समाज में स्त्रियों की नई भूमिका पर... मौजूदा दौर में उनकी सोच कैसी होनी चाहिए.. क्या बदलाव आना चाहिए... तमाम तरह के सवालों पर उनके लेख बहुत ही मुखर होकर जवाब देते नज़र आते हैं।
लेकिन तब बड़ा अजीब लगता है जब इन लेखों पर कई पढ़े लिखे और तथाकथित प्रगतिशील पुरुष आपत्ति जताते हैं। इन लेखों को अतिवादी करार देते हैं। उनकी टिप्पणियां पढ़कर कभी बहुत हंसी आती है तो कभी बड़ा गुस्सा। मेरा बहुत सीधा सवाल है उन लोगों से- रात के साढ़े नौ बजे दिल्ली में हुए बर्बर सामूहिक बलात्कार जिसमें एक कानूनी रूप से नाबालिग ‘पुरूष’ भी शामिल था... क्या वो अतिवाद नहीं है। सीकर में ग्यारह साल की बच्ची जिसके साथ उसी तरह बलात्कार किया गया जैसा दिल्ली में हुआ.. और जो पिछले पांच महीनों से ज़िंदगी और मौत के बीच झूल रही है क्या वो अतिवाद नहीं है। दिल्ली की घटना के पहले और बाद इस तरह के अतिवाद के हज़ारों हज़ार उदाहरण आसानी से मिल जाएंगे... तो क्या ऐसे लोगों को ये अतिवाद दिखाई नहीं देता या फिर वो इसे देखना ही नहीं चाहते... वजह ये कि वो पुरूषों का किया हुआ है।
आम तौर पर हर घर में, लड़कियों और लड़कों में किया जा रहा छोटे से छोटे फ़र्क़ साफ नज़र आता है। लेकिन हम उन्हें आम समझ कर नज़रअंदाज़ करते हैं। क्या ये अतिवाद नहीं है ?
क्या इन महिला लेखिकाओं के विचारों का विरोध करने वाले को ये अतिवाद दिखाई नहीं देते है ?
ये कहते हैं कि बात बराबरी की होनी चाहिए... लेकिन सवाल ये उठता है कि हम चाहे जितना भी ढिढोरा पीट लें लेकिन हमारे समाज में अभी भी पुरुषों और महिलाओं के बीच की खाई इतनी चौड़ी है कि उसे पाटने में सालों लग जाएंगे... बराबरी की बात तब होनी चाहिए जब उन्हें बराबरी पर लाया जाए। क्या विरोध करने से पहले वो इन बातों को भूल जाते हैं ?
मुझे एक बात और समझ में नहीं आती है कि घर के कामों में, घर को साफ-सुथरा और सलीके से रखने की जिम्मेदारी सिर्फ महिलाओं पर कैसे थोपी जा सकती है ? और अगर मनीषा ये लिखती है कि पुरुषों को घर की जिम्मेदारियों का... कामों का अहसास दिलाना चाहिए.. तो गलत क्या है ?
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2 comments:
गलत सिर्फ सोच है भुवन. कोशिश करके देख लो. यही नहीं बदल रही है. ज्यादातर ने कई मुखौटे लगा रखे हैं. सुविधानुसार बदलते रहते हैं. बात नारी की गरिमा की करते हैं और घर जाकर भूल जाते हैं. पत्नी से नौकरानी सा बर्ताव, जानवरों की तरह पिटाई, परदे में रखने की जद्दोजहद और भी क्या-क्या.... ये सब जानते तो हो ही... क्योंकि बड़ा मुश्किल भी होता है पत्नी को बराबरी का दर्जा देना... जब एक दिन किसी पुरूष को घर की जिम्मेदारी संभालनी पड़ती है तो तेल निकल जाता है... तो बाहर नारी के पक्ष में और घर में तानाशाही ही उन्हें ज्यादा मुफीद लगती है... क्या करोगे? रहा सवाल बदलाव का तो उसमें सालों नहीं हजार साल भी कम ही लगते हैं...
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