Tuesday, January 29, 2013

सरल


मैंने फोन पर कहा- मैं आऊंगी तो क्या लेकर आऊँ तेरे लिए?
वो बोली- अरे! बुआ क्या लाना-वाना इसकी भी क्या ज़रूरत...
मैं झट से बोली- ओह! तो ठीक है फिर कुछ नहीं लाऊँगी। अब तूझे कुछ चाहिए ही नहीं तो बढ़िया है...
वो तपाक से बोली- अरे... नहीं-नहीं... ऐसा बोलना पड़ता है यार... आप भी न बिना कुछ लाए कैसे आओगी...
मैंने कहा- ना अब तो कुछ नहीं लाऊंगी...
वो बोली- अरे... बुआ लेकर तो आना पड़ेगा। ऐसा बस बोलने के लिए होता है कि मत लाना... वैसे भी आप तो जानती ही हो मुझे क्या चाहिए होता है... समझी कि नहीं अब तक....
मैंने हंसते हुए कहा- बार्बी चाहिए...
उसने कहा- हाँ... अब फोन रखती हूँ।
टीशा अब कुछ दस साल की होगी। जब वो दस घण्टे ही थी तब ही से कमज़ोरी-सी, बड़ी-बड़ी आँखोंवाली उस बच्ची ने मुझे पड़ोस में रहनेवाली लड़की से बुआ बना दिया था। मैं उसकी बुआ और वो मेरी दोस्त। और, बुआ होने का अर्थ उसके मुताबिक़ एक ऐसी लड़की से जो उसकी सारी बात माने, जब घर में कोई साथ ना दे तो बुआ सामने आए और जब भी दिल्ली से आए कुछ लेकर ही आए। आज के वक्त में रिश्तों में मिलनेवाली अधिकार की भावना गायब होती जा रही है। सब कुछ बहुत ही व्यवहारिक तरीक़े से होता है। ऐसे में खुद से जोड़े गए इस रिश्ते में उस बच्ची से हमारा पूरा परिवार जुड़ा हुआ है। ख़ासकर मैं... टीशा की बातें और सरलता, ये यक़ीन दिलाती रहती है कि रिश्तों की गर्माहट न तो उम्र पर निर्भर करती है और न ही नज़दीकी पर वो तो बस दिल में भरे प्यार पर टिकी है। 

1 comment:

Unknown said...

Wakai aisa hota hai jab kabhi bhi hum apne se kisi chhote ke aise kareeb ho jate hain ki wah humein khud ke na sirf arabar samajhta hai balki humein auron se jyada mahatva bhi dene lagta hai.
Uski saralata hi hoti hai jo humein usmeinuljhake rakhti hai.Aise mein mann to uske paas hum se pahle hi pahunch jata hai.