महेन्द्र सिंह धोनी की कप्तानी की सबसे अच्छी बात
है कि टीम के जीतते ही वो पीछे हो जाते हैं। टीम के अन्य सदस्यों को वो उस जीत के
साथ छोड़ देते हैं। लाइम लाइट में रहते हुए भी नम्रता से उससे दूर... लेकिन, वहीं
धोनी जब किसी एनर्जी ड्रिंक या च्यवनप्राश का विज्ञापन करते हैं तो लोगों को मुख्य
फोकस और उग्र होना सिखाते नज़र आते हैं। खेलने-कूदने की उम्र में बच्चों को बारिश
में भीगते हुए साइकिल चलाना सीखा रहे है। प्रतियोगिता के लिए तैयार करते। निःसंदेह
विज्ञापनों की दुनिया दिन-ब-दिन उग्र और बाज़ारू होती जा रही है। विज्ञापनों के
ज़रिए लोगों के मन में केवल बच्चे की चाहत नहीं स्मार्ट बच्चे की चाहत को पैदा
किया जा रहा है। पाँच साल की उम्र तक ही बच्चों को पूरा विकसित करवाने के लिए
एनर्जी ड्रिंक बेचे जा रहे है। मुझे तो याद ही नहीं आता है कि पाँच साल की उम्र तक
मैंने क्या-क्या किया था। शायद में अपनी ही मस्ती में रही होंगी। लेकिन, अब बच्चों
को, बचपन जीने या मस्ती करने जैसे कामों से दूर करने की पूरी तैयारी है। विज्ञापनों
को ध्यान से देखे तो समझ आता है कि या तो बच्चों को एकल खेल खेलते और जीतते दिखा
जा रहा है या फिर वो टीम का कप्तान ही होता है। बहुत कम ऐसे विज्ञापन है जो बच्चों
को सामूहिकता सिखाते है। माँ-बाप के मन में भी स्मार्ट, बड़े से बड़े को उल्टा
जावाब देकर चुप करा देनेवाले और सब कुछ झट से सीख जानेवाले बच्चे पसंद आ रहे है।
आखिर उनके पास भी समय कहाँ। आखिर वक्त ही टू मिनिट नूडल का है। किस के पास समय है
बच्चे को सिखाने, समझाने का। ऐसे में अगर किसी एनर्ज़ी ड्रिंक या कुछ और से बच्चा
खुद-ब-खुद सब सीख जाए तो आराम ही आराम। लेकिन, ऐसा नहीं है कि विज्ञापन केवल उग्र
होना ही सिखा रहे है। वो हमारी मूल ज़रूरतों को भी सामाजिक शो-ऑफ़ से जोड़ रहे
हैं। पैरों की एड़ियों का फटना शरीर में होनीवाली तकलीफ़ से बढ़कर स्टेटस सिंबल तक
पहुंच चुका है। हालांकि विज्ञापनों का काम ही उत्पाद को खरीदने की इच्छा पैदा करना
होता है लेकिन, विज्ञापन न सिर्फ़ इच्छा पैदा कर रहे हैं बल्कि अब वो हमारी मूल
ज़रूरतों के पीछे छुपी सोच को भी बाज़ारू बना रहे हैं। इसलिए तो ठंड के दिनों में
त्वचा की खिंचाव को कम करने के लिए अब तेल या सामान्य कोल्ड क्रीम नहीं निखार
बढ़ानेवाली एक्स्ट्रा स्मूथ क्रीम खरीदी जाने लगी है...
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