बर्फी देखी। अच्छी लगी। फिल्म के लिहाज़ से क्या सही रहा क्या ग़लत रहा इन बातों से इतर बात प्यार की। कहा जाता है प्यार की कोई परिभाषा नहीं होती है। हर इंसान इसे अपने आप गढ़ता है। समझता है और समझाता है। फिर वो दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे के राज और सिमरन का प्यार हो या चीनी कम में बुद्धदेव और उससे आधी उम्र की नीना के बीच का प्यार हो। लम्हे में परिभाषित प्यार से उसे पर्दे पर उतारनेवाली अदाकारा श्रीदेवी खुद ही खुश नहीं थी। लेकिन, फिर भी प्यार तो प्यार ही है। हिन्दी सिनेमा में प्यार को प्यार ही बनाए रखने की और सीमाओं में न बांधने की सार्थक कोशिशें तो हुई है लेकिन, साथ ही साथ प्यार को अति पवित्र बनाए रखने के जतन भी अति में हुए हैं। हम सिर्फ एक बार जीते है, एक बार प्यार करते है, अगर दूसरी बार करते भी है तो या तो पहले के मर जाने के बाद या शादी हो जाने पर मजबूरी प्यार में तब्दील हो जाती है आदि-इत्यादि। देवदास, हम दिल दे चुके सनम, कुछ-कुछ होता है और ना जाने कितनी ही ऐसी फिल्में है जिसमें प्यार में जबरन के आदर्शवाद और पवित्रता को समेटा गया है। बर्फी में जबरन की पवित्रता को पीछे छोड़ सिर्फ और सिर्फ प्यार को दिखाया और समझाया गया है। पहली बार प्यार में नाकामी मिलने के बाद, दूसरी बार करना और उस प्यार में खुद को पा लेना एक ऐसा कॉन्सेप्ट है जो कि आसानी से पवित्रता का चोला ओढ़े लोगों को हजम नहीं होगा। खासकर तब जब कि आपका पहला प्यार सबकुछ छोड़कर आपके पास वापस आ गया। बावजूद उसके दूसरे के लिए व्याकुल रहना उसके आदर्शवाद पर कइयों को प्रहार लगेगा। प्यार के पहले अहसास को अटल सत्य माननेवालों को ये फिल्म ज़रूर देखना चाहिए। ये भ्रम कि प्यार एक बार ही होता है या पहले प्यार से पवित्र कुछ नहीं या जिससे प्यार करो उससे दोस्ती नहीं निभाई जा सकती है ऐसे कई पारंपरिक सवालों का जवाब न देते हुए ये फिल्म एक जवाब है।
1 comment:
I read it today. I also felt the same. Just,"Hats Off!"
"Jayate!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!"
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