मैं आजकल उसे देख नहीं पाती हूँ। मुझे उससे बात
करने में, उसे देखने भर में ही घबराहट-सी होने लगती है। उसे एक सामान्य चेहरेवाला
और स्वस्थ शरीरवाला व्यक्ति माना जाएगा। लेकिन, मैं जैसे ही उसकी ओर देखती हूँ
मुझे चाचा दिखाई देने लगते है। आज से 15 साल पहले चाचा भी तो बिल्कुल ऐसे ही तो
लगते थे। अपनी ही ज़िंदगी में मस्त, खुश, परिवारवाले, इसकी तरह उनके भी बच्चे थे।
सबकुछ ऐसा ही था। शायद सबकुछ एक सा होना ही मुझे डरा जाता है। चाचा के दिमाग और
मुंह में भरा फितूर इसके पास भी है। परिवार और बच्चों की परवाह के साथ कभी कुछ
ग़लत नहीं होने की गांरटी... चाचा ने कभी किसी की नहीं सुनी थी। सबसे छोटे थे,
बावजूद इसके केवल अपनी मर्ज़ी से ज़िंदगी जी। सुन्दर चेहरे और शरीरवाले मेरे चाचा
आजकल कई बार उस आदमी की शक्ल में मेरी नज़रों के सामने से गुज़रते हैं। और, यही,
मुझे हर बार अंदर तक डरा जाता है। अपनी ज़िंदगी के आखिरी सात साल जिस शक्ल और जिस
तकलीफ में चाचा ने बिताए वो मेरे सामने से सात सेकण्ड में गुजर जाते है। चाचा के
दिमाग और मुंह में भरे उस फितूर ने पूरे परिवार को हिला दिया है। उनकी बेटियां आज
मेरे पापा और भाई में अपने पापा को खोजती है। वही फितूर मुझे उसके दिमाग और मुंह
में भी नज़र आता है। मैं घबरा जाती हूँ। उसकी पत्नी और बच्चे के बारे में कुछ नहीं
सुनना चाहती हूँ। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं कि मैं उसे ये कह दूँ कि सुनो तुम दूसरे
मनीष दुबे मत बनो। क्योंकि मनीष दुबे तो कभी किसी की सुनते ही नहीं है। वो तो केवल
मुस्कुराते, खाते है और केवल अपने लिए जीते है। ये भी बिल्कुल ऐसा ही है। मैं आजकल
उसे देख नहीं पाती हूँ। वो मुझे डराता है...
No comments:
Post a Comment