Tuesday, July 10, 2012

खुद को सरदार खान मत समझ लेना...


गैन्ग्स ऑफ़ वासेपुर देखकर निकल रहे लड़कों के चेहरे की मुस्कुराहट को बहुत देर तक निहारते रहने का मन हुआ। बिहार और झारखण्ड के अंचल को सबसे गरीब, बर्बाद औऱ लोगों को बिहारी की गाली देनेवाले कई अलग-अलग अंचल के लड़कों को शायद उस एरिया के ग्लैमर का अंदाजा हो रहा था। गरीबी,मार खाकर मिली निडरता और विरासत में मिली गालियोंवाली भाषा के पीछे का दर्द गायब था और सरदार और उसके लौंडों का ग्लैमर सर चढ़ा हुआ था। लेकिन,गालियों पर बजनेवाली सीटियों से ज्यादा आवाज़ें सरदार खान और उसकी बीवी और दूसरी औरत के साथ दिखाए जा रहे सेक्स सीन पर आ रही थी। ऐसा लग रहा था कि पर्दे पर जो दिखाया जा रहा है वो इन्होंने पहली बार देखा हो। असल में पहली बार उन्होंने शायद किसी मर्द के लिए औरतों की लड़ाई या समझौते को इस बेबाक अंदाज़ में देखा था। सिनेमा से बाहर निकलते ये लड़के उस मदहोशी में थे कि उन्हें भी कुछ ऐसी ही औरतें मिल जाएगी जो उन्हें किसी और से पास जाने के लिए तैयार करें। लेकिन,वो भूल गए थे कि वो वासेपुर में नहीं दिल्ली में थे और यहाँ तो नो वन किल्ड जेसिका की मीरा रहती है जो बॉयफ्रेन्ड को समय न होने पर सेल्फ सर्विस की हिदायत तक दे देती है। महिलाओं के चरित्र-चित्रण से एक महिला होने के नाते मुझे आपत्ति हो सकती थी लेकिन,दलील ये आ जाती कि भई,वहाँ कि महिलाएं ऐसी ही होती है। हमने देखी है। इसलिए उन किरदारों पर कोई टिप्पणी ना करते हुए बस मन में एक बात आई कि ये जो चेहरे की मुस्कुराहट और दिमाग की गर्मी है ये गर्लफ्रेन्ड या पत्नी के एक फोन से ठंडी होनेवाली है। यहाँ कोई नगमा नहीं है... यहाँ तो फास्ट ट्रैक का विज्ञापन है मूव ऑन...

2 comments:

विनीत कुमार said...

बिल्कुल सही..लप्रेक में लिखी अपनी बात याद आ गयी.

Dipti said...

हाँ मुझे ध्यान है वो पोस्ट। लेकिन, मेरा मुद्दा कमज़ोर और ताकतवरवाला है :-).