मैं टीवी के बिना नहीं रह सकती। मैंने अपनी पहली कमाई से टीवी ही खरीदा था। उसके बिना मुझे मेरी दुनिया अधूरी-सी लगती है। जहाँ टीवी नहीं देखना एक स्टाइल और स्टेटस का सिंबल है वहाँ मुझे टीवी देखनेवाला गंवार बनना मंज़ूर है। और, मैं ये भी स्वीकार करती हूँ कि सीआईडी मेरा पंसदीदा सीरियल है। लेकिन, जब मैं ये देखती हूँ कि टेलीविज़न की ये अनोखी दुनिया खुद को भारतीय सिनेमा से कमतर आंकती है तो मुझे बहुत उलझन होती है। अस्तित्वों का ये घालमेल कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है जैसे भारतीय सिनेमा जबरन में खुद की हॉलीवुड से तुल्ना करती है। जल्द ही टीवी पर टेली अवार्ड आनेवाले है जिसके प्रोमो देखकर साफ-साफ मालूम चलता है कि राम कपूर और रोनित रॉय खुद को टीवी का शाहरूख खान और शाहिद कपूर साबित करना चाह रहे है। टेलीविज़न की दुनिया आज फिल्म से ज़्यादा पहुंच रखती है। ज़्यादा लोग उन्हें देखते है, रोज़ाना देखते हैं लेकिन, कई टेलीविज़न कलाकारों को फिल्मी कलाकारों से ज़्यादा पैसा मिलता है फिर भी वो खुद को कमतर ही मानते है। लेकिन, ये सोच केवल कलाकारों तक ही सीमित नहीं बल्कि कहानियों में भी झलकती है। हिट फिल्मों की कहानियों को टेलीविज़न पर लाया जा रहा है। तीन घंटे में जो फिल्म एक कहानी और किरदारों के साथ पूरी ज़ि़दगी दिखा गई उसे आधे घंटे की सीरियल में हफ्ते में पांच दिन रबड़ की तरह खिंचा जा रहा है। हिट गानों पर सीरियल का नामांकरण हो रहा है। ऐसा लगता है कि नई सोच और नए विचार अब आना बंद हो गए है। जब वी मेट की कहानी पर स्टार टीवी पर शुरु हुए सीरियल का क्या हाल हुआ मुझे तो मालूम तक नहीं। और, अगर किसी फिल्म की कहानी नहीं जंचे तो एवरग्रीन आइडिया रहता है सास-बहू का लड़ाई झगड़ा। इस लड़ाई झगड़े को पर्दे पर उतारने के लिए रास्ते भले आजकल नए खोजे जा रहे हो। जैसे कि दिया और बाती। स्टार के इस सीरियल में पढ़ी-लिखी लड़की और अनपढ़ लड़के की शादी और उनकी परेशानियों को दिखाने के वादे किए गए थे। हर प्रोमो में इस बात का वादा झलकता था कि ये सीरियल मुद्दे को उठा रहा है। लेकिन, सीरियल में मुझे लड़की जो एक पुलिस अधिकारी बनना चाहती थी साड़ी और पल्लू में सिमटी नज़र आती है। इस लिस्ट में सबसे वाहियात है ससुराल सिमर का। बचपन से मन में एक नृत्यांगना बनने का सपना संजोई हुए सिमर और उस सपने के चक्कर में हुई शादी की गड़बड़ के बाद उम्मीद थी कि सीरियल में सपने को आगे बढ़ाया जाएगा। लेकिन, आज वो सीरियल सास-बहू और बकवास का जीवंत उदाहरण बन गया है। मुद्दों और बदलावों के राग के साथ शुरु हुए और सास-बहू पर उतर आए सीरियलों की लिस्ट बहुत लंबी है। कई सीरियलों को देखकर तो मुझे गुस्सा आ जाता है। जैसे कि एक हज़ारों में मेरी बहना है। इस सीरियल में एक बहन को ब्लड कैंसर का मरीज़ बताया गया है। अस्पताल में भर्ती इस लड़की को कीमो थैरेपी से दर्द नहीं हो रहा है उसे तो प्रेमी की जुदाई में तड़पता हुआ दिखाया जा रहा है। कैंसर जैसी बीमारी को भी अब भुनाया जा रहा है। इस सब के बीच बिना सिर-पैर के सब टीवी के सीरियल तारक मेहता का उल्टा चश्मा को देखना मुझे ज़्यादा पसंद आता है। उसमें कम से कम सिर दर्द तो नहीं होता। और, इन सीरियलों में नौंटकी की कसर जो बाक़ी रह जाती है वो पूरी करते है हमारे न्यूज़ चैनल। जोकि दिनभर इस सास बहू और बकवास को और मिर्च मसाले के साथ परोसते रहते है। कई बार तो सीरियल की कहानियाँ इतनी बोझिल हो जाती है कि मुझे विदेशों से कापी किए गए रिएलिटी शो का इंतज़ार सताने लगता है। लेकिन, इन शो में लगनेवाला भारतीय तड़का कई बार ऐसा लगता है जैसे चाइनिज़ पंजाबी मसालों में पकाया गया हो। और, अंत में बात सत्यमेव जयते की जिसे आधा दर्शक वर्ग एक क्रांति के रूप में देखता है। इस कार्यक्रम में प्रसारित अब तक के सारे मुद्दों पर केवल लोकसभा टीवी में ही गंभीर चर्चा हो चुकी है। ये बात अलग है कि शायद ही किसी ने उन्हें देखा हो। उसमें आनेवाली दो तीन केस स्टडी तो वो है जिन्हें मैं भी कवर कर चुकी हूँ। लेकिन, उन्हें भी शायद ही किसी ने देखा हो। इस बात के ज़रिए मैं केवल ये बताना चाह रही हूँ कि अगर आप टीवी देखते है तो सब कुछ देखिए केवल कुछ-कुछ नहीं। और, टीवी ज़रूर देखिए वो समाज और दुनिया में आ रहे बहुत बड़े बदलाव का सूचक है।
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