Wednesday, May 2, 2012

आत्मीयता की डोर से बंधे रिश्ते...


पिछले एक साल से मैं भोपाल नहीं गई हूँ, पिछले एक साल से मम्मी पापा से नहीं मिली हूँ, पिछले एक साल से दोपहर के वक्त बरामदे में बैठकर सूनी खाली सड़क को घंटों नहीं देखा है। इस एक साल में ये सब न कर पाने का अफसोस हुआ लेकिन, उम्मीद बनी रही कि एक न एक दिन तो जाना ही है वहाँ। लेकिन, आज घर छूट गया... मेरा ही नहीं मेरे पूरे परिवार का। सोलह साल जिस घर में रहे वो आज छूट गया। मकान नहीं था, वो हमारा घर था। सरकारी क्वाटर नहीं था. हमारा घर था वो... मुझे आज भी याद है सातवीं में थी मैं, नंदिता के साथ स्कूल से लौटते वक्त चुपचाप उस सरकारी क्वाटर को देखने गई जहां हम जल्द ही रहनेवाले थे। जैन आंटी हमारे सामने और शारदा आंटी हमारे नीचेवाले क्वाटर में। जैन आंटी की मां केवल उनके तीन बच्चों की ही नानी नहीं रही थी। वो हमारी भी नानी हो गई थी। नानी ने कभी भैया का सही नाम नहीं पुकारा था। आदित्य उनके लिए हमेशा आदेश रहा। पूजा में लगी रहनेवाली नानी हमारे घर की सदस्य थी। जिस दिन वो मरी लगा कि हमारे घर का एक सदस्य ही चला गया। और, खुद जैन आंटी हमेशा मुझे कहती थी तेरी शादी के बाद मैं तेरे ससुराल चलूंगी तुझे चोटी करना नहीं आता ना मैं कर दिया करूंगी... और, भार्गव अम्मा। यूं तो दो ब्लॉक के बाद घर था उनका लेकिन, एक भी दिन ऐसा न था जिस दिन मम्मी उनके घर न जाती हो। नब्बे साल की उम्र में भी एकदम फिट है अम्मा। दिवाली पर प्रसाद की चार गुजिया में से एक मेरे लिए बनाती थी। दीप्ति दिल्ली से आएगी तो उसे खिलाऊंगी। हमारे घर के हर त्यौहार में, हर पूजा में घर की बुज़ुर्ग के रूप में खड़ी रहती थी। शारदा आंटी का घर तो ऐसा था कि हमारा ही दूसरा घर... उनके हमारे घर के तार को जोड़ती थी टीशा और मीशा। टीशा तो मेरे सामने ही पैदा हुई थी। पहली बार देखा तो लगा कैसी मरियल बच्ची है। लेकिन, वही मरियल बच्ची आज हमारी जान है। टीशा की मम्मी यानि मेरी भाभी जोकि मेरे सामने शादी करके आई थी। बस पड़ोस में रहनेवाले भैया की पत्नी से हमारी सगी भाभी से ज्यादा हो गई थी। मेरे घर में मेरे और भैया की बचपन की तस्वीरें टीशा की तस्वीरों से कम है। रोज़ाना का नियम था- थोड़ी देर टीशा को ऊपर ले आओ। मैं या तो पापा या तो मम्मी या तो भैया कोई एक तो ये बात बोल ही देता था। और, जैसे ही उसने चलना सीखा पहला कदम ऊपर की ओर था। उसके लिए बुआ मैं थी और कोई नहीं। एक दादी नीचे थी तो एक ऊपरवाली थी। और, पापा बाबा बन चुके थे। उसके दो घर थे एक नीचे एक ऊपर... दिल्ली से घर के किसी सदस्य के लिए मैं कुछ लेकर जाऊं या नहीं उसके लिए ले जाना ज़रूरी था। मेरे कॉलेज के दोस्त तो उसे मेरी असल भतीजी ही समझते थे। उससे आत्मीयता ऐसी थी कि कई बार अलग होने पर दुख होगा ये सोचकर दिल कांप जाता था। यही वजह थी कि उसकी छोटी बहन के आने पर मम्मी ने उससे दूरी बनाने की पूरी कोशिश की। मैं तो खैर तब तक दिल्ली आ चुकी थी। लेकिन, छोटी ने हमारी ओर से शुरुआत का इंतज़ार किया ही नहीं वो तो खुद-ब-खुद गोद में चढ़ जाती, ऊपर जाने के लिए इशारा करती और हम में से किसी को भी देखते ही मुस्कुरा देती। जैसे कह रही हो मैं भी तो हूँ मुझसे भी प्यार करो। इन रिश्तों को पीछे छोड़े मुझे एक साल हो चुका है। लेकिन, फिर भी वो मुझसे जुड़े हुए ही महसूस होते थे। लेकिन, आज लगता है सब रिश्ते जैसे खुल गए... वो घर, वो मोहल्ला, वो रिश्ते सब कुछ पापा के रिटायर होते ही जैसे रिटायर हो गए। आज सब छूट गए। जो रिश्ते मेरी शादी ने मुझसे दूर नहीं किए थे, वो उस घर ने दूर कर दिए... 

1 comment:

Bhuwan said...

ये सही है दीप्ति की वो घर अब छूट गया है... लेकिन यकीन रखना कि घर की तरह वो आत्मियता के रिश्ते नहीं छूटेंगे... वो अनदेखा बंधन कभी नहीं टूटेगा..