Tuesday, April 10, 2012
भ्रामक जीत से एतराज...
अपने ही परिवार में अब तक मैं कैंसर से तीन मौतें और कइयों को इससे जूझते हुए देख चुकी हूँ। ये मेरी अजीब किस्मत ही होगी कि रिपोर्टिंग के चार साल के छोटे से समय में, मैं कैंसर से जुड़ी हुई कई स्टोरी भी कवर कर चुकी हूँ। कभी कैंसर पीड़ितों के लिए वॉक, तो कभी कैंसर से बचने के लिए चल रहे अलग-अलग कार्यक्रम। बीमारी, इसकी भयावहता और इससे जुड़ी हुई परेशानियों को क़रीब से देखने और समझने के बाद ही ये कह पाने की हिम्मत कर रही हूँ कि पत्रकारिता की मौजूदा जमात असंवेदनशील और भ्रामक पत्रकारिता के अलावा कुछ भी करना नहीं जानती है। युवराज सिंह को कैंसर हुआ और युवराज ने उसका डटकर मुकाबला भी किया। युवराज फिलहाल स्वस्थ है और देश लौट चुके हैं। लेकिन, जिस तरह से कल युवराज और उनकी बीमारी का महिमामण्डन हुआ उससे मेरे मन में अजीब सी बैचेनी होने लगी। कैंसर से जीत जाना, कैंसर के बाद भी है ज़िंदगी और न जाने क्या... ऐसे जुमलों का इस्तेमाल हरेक चैनल ने किया। लेकिन, क्या इतना आसान है बीमारी से जीत जाना। सौ में दो ही केस ऐसे होगे जिसमें पहले चरण में ही कैंसर के बारे में मालूम चल जाए। उस पर भी अमेरिका जाकर इलाज करवाने और लंदन में आराम कर के बीमारी से लड़ने का माद्दा ???? युवराज का बीमारी से उबरना एक सकारात्मक संकेत है लेकिन, इसका अर्थ ये तो बिल्कुल नहीं कि ये बीमारी अब भयानक नहीं रही या इसका इलाज आसान हो गया है। पैतालीस साल के उम्र में, भाई बहनों में सबसे छोटे मेरे चाचा पिछले ही साल कैंसर से अपनी लड़ाई हारे है। कैंसर के इलाज के चलते परिवार की जमा पूंजी पूरी खर्च हो गई। लेकिन, हाथ कुछ न लगा। ये मेरा गुस्सा हो सकता है लेकिन, मुझे चैनलों पर चल रही बीमारी पर हुई इस भ्रामक जीत से एतराज है। कैंसर पीड़ितों से मैं कई बार बात कर चुकी हूँ। अव्वल तो छोटे शहरों में इसका इलाज उपलब्ध ही नहीं है और दूसरों बड़े शहरों तक इलाज की आस में आने में ही परिवार कंगाल हो जाता है। हमारे देश में जहाँ आम इंसान मलेरिया या पिलिया के चलते मर जाता है, वहाँ कैंसर को इतना सरल बनाकर पेश करना मुझे परेशान कर रहा है। बात होना ज़रूरी है लेकिन, बात सफल कहानियों के साथ देश में उपलब्ध सुविधाओं पर भी। बहस की ज़रूरत है लेकिन, इस बात पर कि क्या हमारे देश में एक कैंसर पीड़ित बिना घर-बार बेचे अपनी ज़िंदगी के कुछ साल बढ़ा सकता है। कैंसर पर असल जीत तो तब ही संभव है जब अंतिम चरण में पहुंच चुके किसी ग्रामीण को सरकारी अस्पताल में एक ऐसा इलाज मिल सके कि वो अपने ज़िंदगी के कुछ साल और शांति और अच्छे स्वास्थ्य के साथ बीता सके....
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ये जो है ज़िंदगी...
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2 comments:
बिलकुल सही लिखा है दीप्ती जी। जिसने इस बीमारी को इतने करीब ते देखा है। वही इसकी भयवहता को समझ सकता है।
behtareeen .....iska anubhav maine bhi kiya hai....aur nateeja sirf ek hi hai.....
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