Wednesday, March 14, 2012

हम हड़बड़ी में है... न जाने किसी बात की...




बड़े होने की बड़ी हड़बड़ी है। सबकुछ एक चेन रिएक्शन में चल रहा है। सब हड़बड़ी में है, पैदा होने से लेकर बड़े होने तक, बड़े होकर बहुत सफल इंसान बनने तक, सफल होने के लेकर रिटायर होने पर आराम से पैर फैलाकर लेटने तक। अब वो आराम नहीं जो हमने देखा और भोगा। मैं ही प्लानिंग के साथ पैदा हुई थी। सरकार के नियम के मुताबिक़ चार के अंतराल पर।

लेकिन, बस इतना ही हुआ। न तो मेरे पैदा होने के लिए समय और जगह तय की मेरे माता-पिता और न ही मेरे पैदा होते ही उन्हें मेरी स्कूल फीस की चिंता हुई। स्कूल भी गए तो गए नहीं तो नानी के घर में ही रह लिए। न तो कभी ग्यारहवीं में विषय चुनने में चिंता हुई न कॉलेज और न ही नौकरी। सब कुछ बस एक धारा में होता गया। लेकिन, अब तो सब प्री-प्लानिंग के साथ होता है। पैदा होने से पहले ही तमाम तरह की प्लानिंग शुरु हो जाती है। पहले तो ये जानने की कोशिशें होती थी कि बच्चे का लिंग क्या है। अब तो बच्चा कब पैदा होगा कहाँ और कितने बजे ये सब प्लान होता है। माना जाता है कि समय को ठीक करके आधी कुंडली तो यूं ही सुधर जाती है। मतलब ये कि अब बच्चे के जन्म को कन्ट्रोल करके उसके माता-पिता पहले ही ये तय कर लेते है कि बच्चा महात्मा गांधी बनेगा या फिर हिटलर। बच्चे के गोद में आते ही बच्चे के लिए चार पॉलिसी के ऑफर आ जाते है। विज्ञापन के मायाजाल से सचिन तेन्डुलकर अचानक आते है और पॉलिसी समझाकर चले जाते है। बच्चे के छः साल के होते-होते तक बच्चा खुद ही पापा को बता देता है कि ये प्लान ले लो नहीं तो मैं चोर या चपरासी बन जाऊंगा। बारह साल का होते-होते तक माँ की चाहत सीनियर टीम में बच्चे के सिलेक्शन से लेकर मैडल पाने तक फैल जाते है। बच्चे को खींचकर तो बड़ा नहीं किया जा सकता है... तो माँ उसे कॉम्प्लान पिलाना शुरु कर देती है। खेल-कूद में हिस्सा लेने का अर्थ अब शारीरिक तौर पर मज़बूत होना या फिर पढ़ाई से एक छोटा-सा ब्रेक नहीं रह गया है। याद है मुझे कि किसी भी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने के पीछे का उद्देश्य हमेशा से ही एक बदलाव होता था और अगर मैडल मिल गया तो सोने पर सुहागा। लेकिन, अब तो ये प्रतिष्ठा का प्रश्न हो चला है। बड़े होते-होते हमारी ज़िंदगी को बिना ब्रेक की फिल्म में तब्दील कर दिया जाता है। एक कट पर नौकरी, शादी, बच्चा, प्रमोशन और फिर खुद का व्यवसाय। सच में अगर एक घण्टे भी टीवी देख लिया तो विज्ञापन के मकड़ जाल में आप ऐसे उलझे कि लगेगा खुद से थका हुआ और लाचार कोई नहीं। इस सब के बीच ज़िंदगी को जीना भी कुछ होता है ये हम भूल से जाते है। दरअसल ज़िंदगी को जीना भी हम ब्रेक में ही सीखते है। कभी आस्ट्रेलिया में छुट्टियां मनाने की सलाह दी जाती है तो कभी किसी सीडान क्लास कार में लॉन्ग ड्राईव की। ब्रेक के तीन से चार मिनिट ऐसे गुज़रते है कि जैसे ये हमें ब्रेक करने के लिए ही आए थे। हम हड़बड़ी में है... न जाने किसी बात की...
आराम से रहना, ज़िंदगी को जीना। ये कुछ ऐसे जुमले हो चले है जो कि हारे हुए लोगों के शब्दकोश का हिस्सा है। किराए के मकान में रहने पर हारा हुआ महसूस होने लगा है, बस में ऑफिस तक का सफर एक कार तक नहीं खरीद पाने के लिए लानत देता है, घूमना-फिरना भी आराम के लिए नहीं स्टेटस को मैन्टेन करने के लिए होता है। पैदा होने से लेकर रिटायर होने तक हम हड़बड़ी में है... हड़बड़ी काम को निपटा लेने की। सब कुछ इकठ्ठा कर लेने की... हड़बड़ी कि काम निपटे और हम आराम करे...

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