शुरुआत से ही विज्ञान की छात्र होने के बावजूद कभी भी इंजीनियर बनने के बारे में नहीं सोचा। विज्ञान और गणित दोनों ही ऐसे विषय रहे हैं जोकि मुझे नबंर ज़्यादा पाने के लिए आसान लगे हैं। इसमें आपको अपनी कोई ख़ास क्रिएटिविट नहीं दिखानी होती है। लेकिन, जिस चीज़ से इंसान भागता है वो उसके सामने कभी न कभी आ ही जाती है। मेरा भी यही हाल है। आज जो काम कर रही हूँ उसका पूरा सत्व ही क्रिएटिविट में झुपा हुआ है। खैर, पिछले शनिवार को ये समझ में आया कि विशुद्घ विज्ञान या गणित किस हद तक क्रिएटिव हो सकते हैं। आईआईआईटी दिल्ली में लगे ओपन हाउस में पहुंचकर मालूम चला कि कैसे समीकरण ज़िंदगी में घुल मिलकर कुछ अनोखा बना सकते हैं। सबसे पहले ही सामना हुआ एक ऐसी साइकल से जोकि खुद ब खुद टायरों में हवा भर सकती है। सोच सचमुच अच्छी थी क्योंकि साइकल में हवा कम होने पर उसे पंचरवाले तक लेकर जाना बड़ा कड़ा काम है। लेकिन, छात्रों की इस सोच को परिपक्व होने में वक़्त लगेगा। आगे बढ़े तो कुछ छात्र एक अजीबों गरीब बैक पैक के साथ मिले। पास जाने पर मालूम चलाकि ये मज़दूरों को ज्यादा भार आसानी से उठा लेने के लिए तैयार किया गया है। विशुद्ध वैज्ञानिक नियमों के ज़रिए सबसे बड़ी समस्या का निदान। ये प्रयोग मुझे अच्छा लगा हालांकि जिस देश में हाड़ तोड़ मज़दूरी करनेवालों को जहां ठीक से खाना नहीं मिलता उन्हें ये बैक पैक कहां नसीब। कुछ मॉडल ऐसे भी थे जिन्हें छात्रों ने बनाया तो था कि बेहतरीन सोच के साथ लेकिन वो उसे समझा नहीं पा रहे थे। कुछ-कुछ ऐसा ही था एक जूट का गिटार। जोकि छात्रों के मुताबिक़ इको फ्रेन्डली और सस्ता था लेकिन, छात्र ये नहीं बताया कि कैसे वो इसे एम्लिफाय कर सकता है। कुछ छात्राओं ने कपड़े सुखाने की मशीन बनाई थी तो कुछ ने एक समान प्लटों को धोने की। कुछेक सार्वजनिक स्थलों से कचरा हटाने में जुटे थे। सभी छात्रों की सोच तो काबिल-ए-तारीफ़ लगी लेकिन, साथ में ये भी ये भी लगाकि ये सोच दुनियादारी से बहुत दूर है। जब असल में इन्हें उपयोग में लाने की बात होगी तो हो सकता है कि कई रुकावटें आएं। कुछ भी हो लेकिन ये सोचकर एक सूकून मिला कि देश का ये भविष्य समाज के लिए सोच रहा है।
अंत में- आईआईटी में छात्रों को इन प्रयोगों के साथ देखकर जितना अच्छा लगा उतना ही दुख हुआ दिल्ली के स्कूली छात्रों को देखकर। एक भी छात्र इन प्रयोगों को देखने के लिए आया हो ऐसा नहीं महसूस हुआ। सभी बस झुण्ड बनाकर इधर-उधरकर हंसी हंगामा करते नज़र आए। कुछेक तो बदतमीज़ी से बात करते भी दिखे। आईआईटी में आकर महसूस हुआ कि सुविधाओं का अभाव ही शायद इंसान को सरल बनाता है।
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