रंग आकर्षित करते हैं। हम अपने आसपास अगर कभी भी कोई भी रंगीन वस्तु देखते हैं तो एक बार वहाँ नज़रें ठहरती ज़रूर है। बच्चों को भी रंगीन चित्रों वाली किताबें ज़्यादा पसंद आती हैं। शायद इसी आकर्षण को नब्ज़ मानकर फ़िल्म उद्योग धीरे-धीरे कई बेहतरीन ब्लैक एण्ड वाइट फ़िल्मों में रंग भर रहा है। मुग़ल-ए-आज़म से शुरु हुए इस सिलसिले में नया नाम है- हम दोनों। अपने समय की और आज भी लोगों की पसंदीदा फ़िल्मों की लिस्ट में शामिल इस फ़िल्म के रंगीन होने से सभी लोग खुश नज़र आ रहे हैं। ख़ासकर इसके निर्माता और फिल्म के हीरो देव आनन्द। अपनी नई फ़िल्म को रोककर उन्होंने इस इतनी पुरानी फ़िल्म पर वक़्त और पैसा लगाया। क्योंकि वो जानते थे कि कोई फ़िल्म इसे टक्कर नहीं दे सकती है। रंगीन हुई हम दोनों को देखकर मन खुश हो गया। अभी ना जाओ छोड़कर... इस गाने में साधना और देव आनन्द के प्यार में जब रंगों को घुले देखा तो अचानक ही मुंह से निकल गया- वाह!
अब तो मन ही मन मैंने एक लिस्ट भी तैयार कर ली है। उन फ़िल्मों को जिन्हें मैं रंगीन देखना चाहती हूँ। खैर, रंग से भी बड़ी बात है फ़िल्म की कहानी और उसकी प्रस्तुति की। हम कई बार किसी फ़िल्म को बहुत पसंद करते हैं। लगता हैं इसे कई बार और बार-बार देख सकते हैं। लेकिन, एक समय के बाद वो जादू ख़त्म होने लगता है। लेकिन, कुछेक कृतियाँ ऐसी हैं जिसे आप कभी भी देख सकते हैं। हम दोनों भी उसी में से एक है। ये एक ऐसी फ़िल्म हैं जो मेरे समय की नहीं फिर भी मेरी पसंद की है। ऐसी कई फ़िल्में हैं जो तीस चालीस से लेकर पचास साल तक पुरानी है लेकिन आज भी दर्शकों को बांधे रखती है और हर उम्र का दर्शक इसे पसंद करता है। अमर प्रेम में एक अनजान महिला और अनजान बच्चे के बीच का प्रेम या विदाई में अकेली बूढ़ी माँ की अकेले ही हुई दुनिया से विदाई नौजवान की आंखों में वैसे ही आंसू भर सकती हैं जैसे कि उस वक़्त भरे होंगे। बॉम्बे टू गोवा के यात्री या फिर जाने भी दो यारो के कटाक्ष आज भी प्रासंगिक हैं। कुछ समय पहले तक लगता था कि सिनेमा दशकों या पीढ़ियों में बंधी हुई हैं लेकिन, अब लगता हैं कि सिनेमा को कोई कभी किसी बंधन में नहीं बांध सकता है। वो हर दशक हर युग में अपनी एक अलग प्रासंगिकता, पहचान और महत्व रखती हैं।
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