Monday, January 24, 2011
आंग्लभाषा का तिलस्म और हम...
कल का दिन बढ़िया बीता। सुबह और शाम के बेहतरीन होने का मुझे यक़ीन था। लेकिन, रात बनाई फंस गए रे ओबामा ने। सुना था कि फ़िल्म अच्छी है। कलाकारों को देखकर लग भी रहा था कि अच्छी ही होगी। लेकिन, सच में फ़िल्म बढ़िया थी। मंदी की मार की शुरुआत को अपनी फ़िल्म में कइयों ने अपनाया। अनजाना-अनजानी में भी रणबीर कपूर की आत्महत्या की सोच की वजह यही थी। लेकिन, मंदी की मार कहां तक और किन-किन को लगी हैं ये था इस फ़िल्म में। एक हल्की-फुल्की कटाक्ष करती फिल्म। जिसे देखकर आपके चेहरे पर मुस्कान आना लाज़मी है। महानगरों या बड़े शहरों में रहकर हम जान ही नहीं पाते हैं कि असल भारत और उसकी सोच क्या है। कस्बों में आज भी सोच का दायरा और विदेश और विदेशी के प्रति आकर्षण किस हद तक और कितना बेहद है ये ऐसी फ़िल्मों को देखकर ही मालूम चलता है। अमेरिका और अंग्रेज़ी दो ऐसी चीज़ें जिसके लिए आज भी देश की आधी आबादी कुछ भी कर सकती हैं। पूरी फ़िल्म में अमेरिका और मंदी के साथ जिस पर सबसे ज़्यादा कटाक्ष हुआ वो थी - अंग्रेज़ी। मुझे अंग्रेज़ी भाषा और उसके क्रेज़ पर एक डॉक्यूमेन्ट्री बनाने का काम सौंपा गया हैं। सच कहूं तो मैंने इस भाषा को समझने की आज तक किसी तरह की कोई कोशिश नहीं की। फ़िल्म देखने के दौरान मुझे मेरी इस 30 मिनिट की डॉक्यूमेन्ट्री के लिए एंगल मिल गया। जो मैं पिछले एक हफ्ते से नहीं सोच पा रही थी, वो इस फ़िल्म ने समझा दिया। जब भी कोई मुझे ये समझाईश देता हैं कि अंग्रेज़ी तो आना ही चाहिए तो मैं उसे झट से गांधीजी की बोली बात सुना देती हूँ कि कोई भी भाषा सीखना बुरा नहीं और मैं भी इसे तब ही पूरे तौर पर सीखूंगी जब मुझे लगेगा कि मुझे सीखने का मन हैं। लेकिन, मैं उसे किसी मजबूरी में नहीं सीखना चाहती हूँ। अंग्रेज़ी न जाननेवालों में मैंने कई बार एक हीन भावना को देखा हैं। कइयों को लगता हैं कि काश हमें भी ये बेहतरीन भाषा यूँ फर्राटे से बोलना आती। मुझे जाने क्यों आज तक ऐसा नहीं लगा। मुझे इस बात की खुशी है कि एक ही भाषा सही लेकिन, कुछ तो हैं जो मुझे आता हैं। फिर भारत में पैदा हुए अंग्रेज़ी में पले बढ़े लोगों से हिन्दी बात करना मुझे विशेष रूप से पसंद हैं। ऐसे लोगों को ये बोलने में मज़ा आता हैं कि मेरा हिन्दी थोड़ा खराब हैं और मुझे ये कि मुझे अंग्रेज़ी नहीं आती। खैर, अब मुझे इस भाषा को सिखाने के नाम पर चल रहे व्यवसाय को लेकर कुछ बनाना हैं। उम्मीद हैं कि मैं अंग्रेज़ी के ज्ञाताओं के ज्ञान और न जाननेवालों के मन में बसी हीन भावनाओं की जड़ को खोज पाऊंगी। जान पाऊंगी कि इस भाषा में कौन-सा तिलस्म छुपा है जो लोग यूँ बौराए रहते हैं इसके पीछे।
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1 comment:
सही बात है..मैं भी पहले इस हीन भावना से ग्रसित था.. मेरी अंग्रेजी तो वैसे भी कुछ ऐसी ही है जैसी नमक हलाल में अमिताभ जी की थी..इस चक्कर में लोगों से बात करना भी मुश्किल हो जाता था..सबसे खास बात तो ये है कि हमारे देश में आज भी उन लोगों का प्रतिशत बहुत अधिक है जो अंग्रेजी से प्रभावित होते हैं..और बड़े शहरों के लोगों का टेलेंट भी शायद उनकी इसी भाषा के कारण ज्यादा समझ में आता है.. ये बात मैंने बहुत करीब से महसूस की है..एक बार ट्रेन में भी मैने कुछ लोगों को ऐसे ही अंग्रेजी में बात करते देखा जो एक वाक्य बोलने में पसीने पसीने हो रहे थे.. उस दिन मैने सोचा आपको अगर बात की जानकारी हो तो आत्मविश्वास खुद ब खुद आ जाताहै ज्ञान को कभी भी भाषा का मोहताज नहीं होना पड़ता है...
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