Saturday, December 26, 2009
उम्मीद अभी बाक़ी है...
जब भी कभी हम किसी बुरे इंसान और उसकी हैवानियत के बारे में सुनते हैं हमें लगता हैं कि सब ख़त्म हो चुका हैं। लगने लगता है कि अब कुछ बचा ही नहीं है। समाज पतन की ओर रुख कर चुका हैं। ऐसा ही कुछ हुआ है रुचिका के मामले में। ऊंची पदवीवाले आरोपी की ऊंची पहुंच और 19 साल तक उसके बचे रहने से समाज सकते में हैं। एक आम आदमी जिसे क़ानून और क़ानून के इन रखवालों पर जरा भी विश्वास है आज ठगा हुआ-सा महसूस कर रहा हैं। सब अपने-अपने तरीक़े बता रहे हैं इन लोगों से निपटने के लिए। लेकिन, इस सबके बीच एक ख़बर ऐसी भी है जिसे पढ़कर लगता है कि उम्मीद अभी बाक़ी है। रूचिका का केस लड़ रही उसकी दोस्त आराधना के पति की ख़बर। उसके बारे में शायद ही कोई सोच रहा हैं। आराधना ने जो किया वो काबिलें तारीफ़ है लेकिन, उसके पति ने जिस तरह से उसका साथ दिया वो भी सराहनीय है। जिस वक़्त आराधना की शादी हुई वो इस केस को लड़ रही थी। हो सकता है कि आराधना के ससुरालवाले या उसके पति उसे इस केस से दूर होने की सलाह देते या फिर दबाव डालते। लेकिन, ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन लोगों ने उसका साथ दिया। हमारे समाज में महिलाओं की परिवार में क्या औकात है ये हरेक इंसान जानता हैं। वो मायका हो या ससुराल लड़की की राय कम ही मांगी जाती हैं। अगर मांग भी ली गई तो उस पर अमल होने का प्रतिशत और कम हैं। ऐसे में आराधना का ही फैसला और आराधना की राह से सहमति एक बड़ी बात है। आदर्श समाज की अवधारणा में स्त्री और पुरुष समान हक़ रखते हैं। लेकिन, ऐसा नहीं होता है। यहाँ तो 14 साल की बच्ची को आत्महत्या के लिए मजबूर करनेवाले पुरुष मौजूद हैं। ऐसे में आराधना का साथ और उसके दिखाए रास्ते पर उसका हाथे चलनेवाले पुरुष की तारीफ ज़रूर होना चाहिए। इस ख़बर को पढ़कर एक राहत सी होती हैं कि इस समाज में जहाँ हरेक चीज़ ढलान पर जाती लग रही है कुछ लोग ऐसे भी है जोकि चुपचाप इसकी रीढ़ की हड्डी को सहारा दे रहे हैं।
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अलग सोच...,
मेरी नज़र से...
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1 comment:
Sahi kaha apne.
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क्या आपने लोहे को तैरते देखा है?
पुरुषों के श्रेष्ठता के 'जींस' से कैसे निपटे नारी?
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