पंडितजी यूँ तो एक सामान्य या फिर ये कहे कि सामान्य से भी कुछ कमतर ही इंसान रहे है। ये बात मैं उनके विचारों या फिर उनके व्यवहार के बारे में नहीं बोल रही हूँ। बल्कि ये इसलिए कि वो कभी किसी से न तो झगड़ा करते हैं, न तो किसी से ऊंची आवाज़ में बात करते हैं और न ही किसी के बारे में कुछ बुरा बोलते हैं। पंडितजी एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं। बचपन से ही वो अभाव मे जिए हैं। घर में अपने से पहले माता-पिता और भाई बहनों के लिए जो उन्होंने सोचना शुरु किया वो अपने बच्चों तक जारी हैं। हालात अब ऐसे हैं कि ख़ुद के बारे में ही वो सोचना भूल गए। पंडितजी की पहली नौकरी एक ऐसी सरकारी नौकरी थी जिसमें ऊपरी कमाई की भरमार थी लेकिन, पंडितजी से ये काम न हुआ और ये नौकरी उन्होंने छोड़ दी। इसके बाद जो नौकरी उनकी लगी वो एक सरकारी विभाग के जनसंचार विभाग से जुड़ी हुई थी। पंडितजी ने ज़िंदगीभर इमानदारी काम किया। अफ़सोस ये कि केवल काम किया और कुछ नहीं किया। किसी तरह की ऊपरी कमाई नहीं किसी के साथ कोई गहरी दोस्ती नहीं की जोकि फ़ायदा पहुंचा सकें। इतनी साल तो जैसे तैसे काम चल गया लेकिन, अब इस हाई टेक ज़माने में पंडितजी बुरी तरह पिट गए हैं। अपनी सरलता में ऐसे फंसे कि लोग इतने आगे निकल गए कि अब वो एक कुटिल ज़िंदगी की शुरुआत भी कर दे तो पीछे छूट जाएं... (जारी)
1 comment:
achcha lekh,
ya kahani ki achchhee shuruaat
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