साथ ही मेरे मन में ये रोज़ाना आता है कि उन लड़कों से कहूँ कि- क्या तुम सभी को तुम्हारे माता-पिता ने इसी तरह जन्म नहीं दिया हैं या फिर तुम सभी टेस्टट्यूब बेबी हो...
Saturday, August 8, 2009
टेस्टट्यूब बेबी...
रोज़ाना बस का सफ़र करते हुए ग़लत बातों और हरक़तों के प्रति मन उदासीन हो गया है। लगातार हर वाक्य के पहले और बाद में गालियाँ सुनना, लड़कियों पर कसी जानेवाली फब्तियाँ, खिड़की की लड़ाई, सीट के लिए महिलाओं की आपस में लड़ाइयाँ या फिर महिला सीट पर बैठे रहने के लिए पुरुषों के नाटक... सब कुछ अब रोज़ाना की बातें हो गई हैं। लेकिन, पिछले कुछ दिनों से एक बात से मन विचलित है। हफ़्ते में लगभग 2 से 3 बार मेरी बस में एक गर्भवती महिला चढ़ती है। जिस स्टॉप से वो चढ़ती है वहाँ तक पहुंचते पहुंचते बस पूरी भर चुकी होती है। यही वजह है कि कई बार वो खड़ी रहती है। उसकी उम्र लगभग 30 साल होगी। वो शायद बाराखम्बा के किसी ऑफ़िस में काम करती है। एकदम शांत स्वभाव की, चुपचाप खड़ी रहती है। किसी से कोई शिकायत नहीं, किसी तरह की मिन्नत नहीं। हालांकि गर्भवती होना किसी तरह की कोई बिमारी नहीं लेकिन, फिर भी ध्यान रखने की ज़रुरत तो होती है। खैर, मैं जितना उस महिला से प्रभावित हूँ उतना ही उन लड़कों से परेशान जो बस में चढ़ रही हर लड़की पर फब्तियाँ कसते हैं। ऐसा करना उनकी दिनचर्या का अहम काम है शायद लेकिन, मुझे गुस्सा उस वक़्त आता है जब वो उस महिला के बारे में भद्दी बातें करते हैं। बसों में होनेवाली इस हरक़त को लगभग हर लड़की अनसुना कर देती हैं। वजह शायद ये कि इसी रास्ते पर उन्हें रोज़ाना सफ़र होता हैं और लड़कियों के साथ होनेवाली हिंसा ग्राफ़ महानगरों में बहुत ऊंचा है। वो महिला भी उन बातों को सुनकर अनसुना कर देती हैं। सबसे आगेवाली सीट पर बस के स्टॉफ़ के दोस्त ये लड़कें महिला के गर्भवती होने के तरीक़े पर ही केवल चर्चा करते हैं। कैसे वो गर्भवती हुई होगी, उसके पति में कितना दम होगा, अब कैसे और क्या किया जाता होगा। हालांकि ये सारी बातें एक विशेष कोड लैंग्वेज में होती है जिसे बस में रोज़ाना सफ़र करनेवाला हर इंसान समझ सकता हैं। उनकी ये भद्दी बातें मेरे दिमाग को झनझना जाती है। ऑफ़िस से मेरे निकलने का वक़्त तय नहीं होने की वजह से मुझे कभी-कभी ही ये सब सुनने को मिलता है। लेकिन, वो महिला रोज़ाना ही ये सब सुनती होगी। चेहरे पर बिना किसी हाव भाव के सपाट चुपचाप वो महिला खड़ी रहती हैं। मैं चाहती हूँ मैं उस महिला से बात करूं, उससे कहूँ कि क्यों नहीं तुम इन बेहूदें लोगों को जवाब देती हो।
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बस का सफ़र
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4 comments:
दीप्ती जी आपको साधुवाद आपकी सोच को प्रणाम मेरी समझ में खुद आज तक नहीं आया कि अभी भी कितने लोग मनुष्य नहीं हो पाये हैं.सारी गालियां सारी अश्लीलता महिलाओं को लेकर ही क्यों है? मैंने आपका पहले वाला लेख भी पढा था. सारी संवेदनाओं को झकझोर देता है. हम मनुष्य कब बनेंगे? हम स्त्री पुरुष को मात्र मनुष्य के रूप में कब देखेंगे?
सबकुछ सहने और सुनने का साहस जितना महिलाओं में हो सकता है, पुरुषों में नहीं।
सचमुच कितना मुश्किल है एक कामकाजी औरत का रोज को नजरअंदाज करना....कितनी नजरे अपने शरीर पे चिपकाये आती है वो लौटकर.....कितनी सदिया बीत गयी....औरत वही खड़ी है
आपका गुस्सा जायज़ है, लेकिन मुझे नहीं लगता की कुछ किया जा सकता है. यह हमारे यहाँ का राष्ट्रीय चरित्र और राष्ट्रीय समस्या है. इसका पता उस गर्भवती महिला को भी होगा ही. ऐसे में तो उनसे यह उम्मीद हरगिज़ नहीं की जा सकती की वे उन लोगों का प्रतिवाद करें, आखिर रोज़ का आना-जाना है उन्हें.
अपने यहाँ तो पुलिस भी गर्भवती औरतों के पेट पर लात मारने के लिए कुख्यात है. और किसका कहें!
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