Thursday, August 6, 2009
तकनीक़ के भरोसे...
तकनीक पर यक़ीन करना और उसके भरोसे अपनी ज़िंदगी के हर काम को तय कर लेना हमारी आदत हो चुकी हैं। मैं हमेशा कॉलेज जाने के लिए बीस मिनिट पहले घर से निकलती थी क्योंकि स्कूटी पर सवार होकर मैं बीस मिनिट में कॉलेज पहुंच जाती थी। घर से नीचे उतरते हुए कभी ये नहीं सोचा था कि स्कूटी खराब भी हो सकती है या फिर रास्ते में भी कुछ हो सकता है। खैर, कई बार वो स्टार्ट नहीं हुई, कई बार रास्ते में खराब हुई लेकिन, मेरा स्कूटी पर यक़ीन ख़त्म नहीं हुआ। हम आज के वक़्त में तकनीक और उपकरणों के मुताबिक़ ख़ुद को ढाल चुके हैं। उसके हिसाब से ही सारा काम करते हैं। शाम को थक जाने की वजह से हम सोचते हैं कि सुबह कपड़े प्रेस करेंगे और पहनकर चल देंगे लेकिन, अचानक सुबह लाइट चली जाती है और हम यूँ ही बिना प्रेस किए कपड़े पहने जाने को मज़बूर हो जाते हैं। कई बार हम तकनीक़ और उपकरणों के इस धोखे को माफ कर देते हैं। लेकिन, कई बार हम चिढ़ जाते हैं और तकनीक़ के इस धोखे को अपनी बुरी क़िस्मत से जोड़ देते हैं। ऐसा ही मेरे साथ हुआ। अपनी व्यस्त ज़िंदगी से मैंने एक दिन का समय निकाला राखी के त्यौहार के लिए। सोचा कि रात को ट्रैन से चलूंगी सुबह पहुंच जाऊंगी और फिर भैया को राखी बांधकर रात की ट्रैन से वापस दिल्ली। हालांकि भारतीय रेल का ट्रैक रिकॉर्ड इतना अच्छा नहीं है मेरी ट्रैन सौ में से नब्बे बार देर से पहुंची है दिल्ली फिर भी मुझे यक़ीन था कि एक दिन मेरा घरवालों के साथ बीत ही जाएगा। लेकिन, ऐसा हुआ नहीं। मेरी ट्रैन चली तो ठीक लेकिन, थोड़ी देर में उसके एसी कोच में आग लग गई और सुबह के चार बजे तक वो आगरा में ही खड़ी रही। चार बजे आगरा में माने कि कितना भी बड़ा चमत्कार हो जाए वो शाम से पहले भोपाल नहीं पहुंच सकती वो अगर वो चली तो। मुझे रात की ट्रैन से वापस आना भी आना था। अब जब ट्रैन यही से नहीं चली तो वापसी के बारे सोचना बेवकूफी ही थी। खैर, मैं आगरा के रेल्वे स्टेशन से वापस दिल्ली आ गई। ऐसा पहली बार हुआ कि आधे रास्ते से मैं लौट आई हूँ। वापस आकर मैं खूब रोई। घर जाने के चक्कर में मैंने भैया को राखी भी नहीं भेजी थी। अपनी 25 साल के जीवन में पहली बार भाई को राखी नहीं बांधी, पहली बार ऐसा हुआ कि घर जाने को निकली और आधे रास्ते से ही वापस हो गई। एक बार भी मेरे मन में ये नहीं आया था कि ट्रैन खराब हो सकती हैं। हो सकता है मैं भोपाल तक ना पहुंच पाऊं। मेरा प्लान फ़ूल प्रुफ़ था मिनिट बाय मिनिट की क्यू शीट तैयार थी, बस जिस तकनीक़ के भरोसे मैं थी वो फ़ेल हो गई...
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ये जो है ज़िंदगी...
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3 comments:
बेहतरीन अभिव्यक्ति
भारतीय रेल पर भरोसा किया और भाई बिना राखी के ही रह गये.
चलो आगरा मे नही रूके आप ---- दिल्ली वापस आ गये
अच्छी रचना -- अच्छा संसमरण
इस संस्मरण को पढ़ना अच्छा अनुभव रहा
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Dipti
subah hi maine paper me ye khbar padh li thi . Phir bhi mujhe laga shyad aap pahuch gayi hogi . 25 saal me pahli baar aisa hua ki aapne apne bhai ko rakhi nahi badhi aur 36 saal me pahli bar aisa hua ki meri bhi kalai sooni rah gayi . Aap to ro li,
mai is-se bachne ke liye bina kisi kaam ke shaam 7.30 tak office me pada raha . But Bhai-Bahan ka pyar bana rahe iske liye meri dheroon shubhkamnaye .
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