Monday, July 20, 2009
जीना इसी का नाम है...
आनंद फ़िल्म और उसके क़िरदार हमारे ज़हन में गहरे बसे हुए हैं। यहाँ तक कि ऋषिकेश मुकर्जी इस फ़िल्म के संवाद तक हमें रटे हुए है। कल शाम से ही मुझे ये फ़िल्म याद आ रही थी। इसमें राजेश खन्ना की आदत रहती है कि वो किसी भी अंजान इंसान से बात करने लगते थे। वजह बताते थे उस इंसान से निकलनेवाली सकारात्मक तरंगों को। कल शाम मैं भी ऐसे ही एक व्यक्ति से मिली। उम्र होगी 65 के आसपास। एकदम गोल मटोल शरीर, सुन्दर चेहरा, चेहरे पर चश्मा और लंबी सी मुस्कुराहट। और, इतना बोलते है, इतना बोलते है कि किसी और को एक शब्द बोलने का मौक़ा न मिलें। असल में मेरी दीदी अपनी बेटी के एडमिशन के चक्कर में दिल्ली आई हुई थी। उनसे मिलने के लिए मैं कल नोयडा गई थी। दीदी कल इन्हीं अंकल के घर पर रूकी हुई थी। मेरे रास्ता भटक जाने पर अंकल ने मेरे रिक्शावाले को रास्ता समझाया था। लेकिन, जब इसके बाद भी मैं नहीं पहुंच पाई तो अंकल ख़ुद मुझे लेने आ गए। अंकल ने मुझे गाड़ी में बैठने को कहा और फिर रिक्शावाले को खूब डांट लगाई। मैं अंकल से पहली बार मिल रही थी। लेकिन, उन्होंने मुझसे इतनी बात कि, की ऐसा लगाकि मैं उनकी बहुत पुरानी दोस्त हूँ। कैसे उनकी नौकरी लगी, कब वो कहाँ रहे, क्यों रहे, बच्चे कब-कब और कहाँ-कहाँ पैदा हुए, बेटे की बीमारी, बहू के ताने... सबकुछ वो मुझे सुनाते रहे। बीच-बीच में पत्नी के साथ मज़ाक और रिश्तदारों की बुराइयाँ भी चलती रही। मैं पूरे वक़्त उनकी बातें ध्यान से सुनती रही और हंसती रही। केवल दो घंटे की इस मुलाक़ात में मैं उनके बारे में इतना जान गई कि मैं ये लेख लिख पा रही हूँ। हाँ, वो मेरे नाम और काम के अलावा कुछ नहीं जाते होगे। आखिर उन्होंने मुझे बोलने का मौक़ा ही नहीं दिया। अंकल से मिलकर मुझे पता चला कि ज़िंदादिल इंसान किसे कहते है। 65 साल की उम्र में, परेशानियों से जूझते हुए भी वो खुश थे। अपने हर पल, हर परिस्थिति को हंसकर जी रहे थे। आखों में कैटरेक होने के बावजूद वो हमें कार से शाम के वक़्त छोड़ने के लिए आए। रास्तेभर बोलते रहे कि सूरज डूबने से पहले घर पहुंचा ज़रूरी है नहीं तो हम ही डूब जाएगे और फिर ज़ोर की हंसी। हाफ़ पेन्ट और टीशर्ट पहने हुए अंकल को बिना दाढ़ी बनाए कही जाना पसंद नहीं है। बाहर खाना उन्हें पसंद है लेकिन, सेल्फ़ सर्विस पसंद नहीं। कहने लगे भिखारी लगता है इंसान। अपनी हर बात के बाद वो ठहाका लगाते थे। चाहे कोई और हंसे या ना हंसे। मैं कल रातभर अंकल के बारे में ही सोचती रही। इस उम्र में, बच्चों के लिए सब कुछ कर देने के बाद, आराम करने के बजाय वो नौकरी ढ़ूंढ रहे है। घर में बैठना उन्हें पसंद नहीं। परिवार की कई परेशानियाँ आज भी उनके साथ जुड़ी हुई है। परेशानियाँ भी ऐसी कि एक सामान्य इंसान संभाल ही न पाए, लेकिन फिर भी उन्हें अपनी दाढ़ी और पड़ोसन की उम्र और सुन्दरता की पूरी जानकारी हैं। पत्नी को बात-बात पर छेड़ना वो नहीं भूलते है और कैटरेक होने के बाद भी कार ख़ुद ही चलाते हैं। जीना इसी का नाम है...
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अलग सोच,
ये जो है ज़िंदगी...
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6 comments:
कभी कभी कुछ लोग हमारे सम्पर्क मे ऐसे आते है जो बहुत अर्से बाद भी नही भूलते --
अच्छा संसमरण
Jindagi mein kabhi kabhi aise log milte hain jo jindadil to hote hi hain...... doosron ko jeene ki prernaa bhi dte haain.....
कुछ ऐसे लोग होते है जिनसे मिलकर लगता है.. इनसे नहीं मिलते तो क्या हो जाता.. हृषी दा के किरदार कितने जिंदादिल होते थे ना..
वाकई जीना इसी का नाम है.
कोई मिल जाता अनायास
लगता प्राणो़ के बहुत पास
फिर वही एक दिन खो जाता
सुधियो़ को दे अग्यातवास
स्वीकारे़ छ्न की अवधि
अनागत सपबो़ के अनुमान ना हो़
जग जो चाहे सो कहे बिम्ब
आईने मे़ बदनाम ना हो.
( आत्म प्रकाश शुक्ल )
वक्त बदल रहा है और वक्त के साथ-साथ लोग भी अपने को बदल रहे हैं। वाकई जीना इसी का नाम है। खुद को लाचार उम्रदराज समझ कर बेकार बैठ जाने से अच्छा है जिंदगी को जिंदादिली से जिया जाए।
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