Monday, June 29, 2009

मैट्रो हमें सभ्य नहीं बना सकती...

मैट्रो में सफर करने से ज़िंदगी आसान हो जाती है। सफर बिना किसी ट्रैफ़िक जाम के, बिना टायर पंचर हुए पूरा हो जता है। गर्मी के दिनों में एसी का आराम भी मैट्रो में ही मिलता है। ये सब बातें सही है लेकिन, एक ऐसी बात है जिसमें मैट्रो नाकाम है। वो है हमें नियमकायदे सिखाने में या फिर कहें कि सभ्य बनाने में। मैट्रो स्टेशन पर पहुंचना भी कोई आसान काम नहीं। लेकिन, ऐसे में मैट्रो ने अपनी फ़ीडर सेवा की शुरुआत की। फ़ीडर जो मैट्रो में सफर करनेवालों को अलग-अलग इलाक़ों से निकालकर मैट्रो स्टेशन तक लाते हैं। नियम मुझे पता नहीं फिर भी शायद इस फ़ीडर में उन लोगों को बैठना चाहिए जो मैट्रो में सफ़र करना चाहते हैं। ऐसा होता नहीं है। ऐसी फ़ीडर में आगे के बस स्टॉप पर उतरनेवाले लोगों की भीड़ ज़्यादा होती हैं। ऐसा मेरे साथ रोज़ाना होता है। मैं मदर डेयरी बस स्टॉप पर खड़ी रहती हूँ और फ़ीडर बस एक दम ठूंसी हुई आती है और ऐसे में मुझे सामान्य बस से यमुना बैंक मैट्रो स्टेशन के बाहर उतरना पड़ता है। यहाँ से स्टेशन की दूरी लगभग एक किलोमीटर है। जोकि मुझे पैदल तय करनी पड़ती है। कई बार मैंने उसी ठ़ूंसी फ़ीडर को लक्ष्मी नगर में पूरा खाली होते देखा है। मन एक दम उदास हो जाता है। खैर मैं हमेशा की तरह ये सोच लेती हूँ कि आराम मेरी क़िस्मत में नहीं। इसके आगे मैट्रो स्टेशन पहुंचकर भी लाइन में लगने से स्टेशन में घुसने तक के लिए लड़ाइयाँ और धक्कामुक्की होती है। ये जानते हुए भी कि हर चार मिनिट में एक मैट्रो है। हम मैट्रो हमेशा ही लेट जो होते है। बस से जाए ये मैट्रो से हमेशा लेट होते हैं और सबसे पहले चढ़ना और उतरना चाहते हैं। मैट्रो में संगीत न बजाए ये कभी-कभी किसी के मोबाइल पर बज रहे लाउड गाने के चलते सुनाई नहीं देता। और, दरवाज़ों से सटना फर्श पर बैठना तो हमें भारतीय रेल ने बचपन से सिखाया है उसे हमें यूँ नहीं भुला सकते। सबसे ज़्यादा भयानक जो लगता है वो है राजीव चौक पर उतरना। मैट्रो में अनाउन्समेन्ट कर रही आवाज़ें हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों में चिल्लाती रहती है कि उतरनेवाले यात्रियों को पहले उतरने दें। लेकिन, मज़ाल है जो ऐसा हो जाए। बाहर खड़ी भीड़ को तो ये लगता है कि बस यही आखिरी मैट्रो है इस धरती पर। आज सुबह ही मैं फी़डर में लटकर और राजीव चौक पर एक सभ्य सज्जन के बैग का धक्का खाकर ऑफ़िस पहुंची हूँ। मैट्रो हमें सुविधा दिला सकती है, आराम दिला सकती हैं, हमारा समय बचा सकती हैं, लेकिन अफ़सोस की सभ्य नहीं बना सकती...

13 comments:

Unknown said...

एकदम सही विश्लेषण, हम भारत के भदेस लोगों में अनुशासनहीनता, और सामान्य नागरिकता बोध की इतनी कमी है कि, उसका प्रदर्शन सब जगह कर देते हैं…। यही भारतीय लोग जब विदेश जाते हैं, तब "सीधे" रहते हैं, क्योंकि वहाँ की "व्यवस्था" और "कानून का डण्डा" इतना प्रभावशाली है कि भारत के गन्दे लोग उसे चाहकर भी नहीं बिगाड़ पाते… (कोशिश तो वहाँ भी करते हैं)

M VERMA said...

सलीके से रहने के लिये सलीका चाहिये.
साधनो से हम सभ्य नही हो सकते.
सशक्त लेखन के लिये बधाई

Anonymous said...

कानून का राज सब कर सकता है, सभ्य भी बना सकता है।

Nitish Raj said...

पूरी तरह सहमत हूं आपसे। कृप्या फर्श पर ना बैठें पर फिर भी बैठते हैं लोग। कानून का डंडा सब को सीधा कर देता है। पर यमुना बैंक पर ही कारें ऐसी खड़ी हो जाती है उसके कारण फीडर बस तक नहीं निकल पाती। आज मैंने भी मेट्रो पर ही एक पोस्ट की है। हो सके तो पढ़िइएगा।

Nitish Raj said...

हो सके तो पढ़िएगा मेट्रो पर ही http://nitishraj30.blogspot.com/2009/06/blog-post_29.html

राज भाटिय़ा said...

दीप्ति जी, यह लेख एक करारा चांटा है उन सब पर जो ऎसा करते है, यही हाल फ़िल्म देखने जाओ तो वहा है,लेकिन हम सुधरेगे कभी नही,क्योकि हम आजाद है , जब कि हमे आजादी का सही मतलब ही मालूम नही, धन्यवाद.
सुरेश जी यह लोग विदेश मै आ कर भी अपनी आदत नही छोडते, यह हम ने देखा है,

सुशील छौक्कर said...

मैट्रो हमें सुविधा दिला सकती है, आराम दिला सकती हैं, हमारा समय बचा सकती हैं, लेकिन अफ़सोस की सभ्य नहीं बना सकती...

सोलह आने सच कहा आपने।

रंजन said...

ये नजारा मैं भी हर रोज देखता भुगतता हूँ.. लेकिन एक और बात मैं कई पोजिटिव बदलाव भी देख रहा हूँ.. लोग कहने पर जरुरतमंद को सीट दे देते है.. अगर गार्ड हो तो थोडा़ लाईन मेंटेंन रहता है.. बाकी तो वक्त से साथ सुधरेगा एसी उम्मीद करते हैं...

नीरज मुसाफ़िर said...

आप सही कह रही हैं.
नियम भी बना रखे हैं मेट्रो ने और नियम तोड़ने पर जुरमाना भी है. लेकिन कभी भी कोई भी authoriesd person इसमें चेकिंग करने नहीं आता. अगर नियमित ऐसा होने लगे तो कुछ बदलाव होने की सोच सकते हैं.
वैसे मैं भी मेट्रो से ही जुडा हुआ हूँ. रोजाना शास्त्री पार्क स्टेशन से फीडर बस से मयूर विहार, नोएडा जाना होता है.

विवेक सिंह said...

हम न सुधरेंगे कभी तुम सुधारा न करो मेट्रो :)

Aadarsh Rathore said...

laparwahi ki aadat hi sabhi avyavastnaaon ki janani hai....

Udan Tashtari said...

सही विश्लेषण किया...सिविक सेन्स काफी हद तक तो सुधर गया है, यह भी हो ही जायेगा. आशा रखें ..आप पालन करें..धीरे धीरे बदलाव आयेगा.

अनूप शुक्ल said...

सभ्य तो अपने आप बनना होगा! :)