Monday, June 22, 2009

दूसरों से सीखते लेकिन, मानते नहीं...

जब master's degree के लिए मैंने माखनलाल विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था तब मेरी class में मात्र मैं भोपाल की थी। बिहार, उत्तर प्रदेश के छात्रों के बीच रहते हुए ही मैंने ये सीखा कि मैं, मैं को में कहती हूँ या फिर पैदल को पेदल। और, ऐसे ही कई बिहार से आए छात्रों ने जाना था कि वो सड़क को सरक या फिर लिंग भेद में ग़लतियाँ करते हैं। एक साथ रहते हुए कई ग़लतियाँ हमारी सुधरी थी लेकिन, फिर भी ये अंतर कई बार मतभेद की वजह भी बना था।
ये बात सच है कि हम जिस इलाके में रहते है उससे हमें विशेष प्रेम होता है। उसकी खूबियों का बखान हम बढ़-चढ़कर करते हैं और कमियों को कुछ यूं ढांपते है कि अब इतना तो चलता है। और, यही बातें धीरे-धीरे बढ़ती जाती है, उग्र होती जाती है। कोई एक क्षेत्र जब बहुत विकसित हो जाता है तो उसके विकास में उस क्षेत्र के वासियों के साथ-साथ दूसरे क्षेत्रों से आएं लोगों का भी योगदान होता है। जैसे कि पंजाब में बिहार के मज़दूरों के दम पर फसल वक़्त रहते कट पाती हैं। या फिर इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है फ़िल्मी दुनिया जहाँ दक्षिण भारतीय ए आर रहमान के संगीत की पूछ होती है। उत्तर भारत के रहनेवाले बच्चन परिवार ने इसे अंतर्राष्ट्रीय बनाया है और कई ऐसे ही उदाहरण। और, भी कई ऐसे उदाहरण हमारे सामने है जहाँ अपने क्षेत्र से निकलकर व्यक्ति ने किसी और क्षेत्र की तरक्की में साथ दिया हो। जितना पुराना एक क्षेत्र से दूसरे में जाना है उतना ही पुराना है नस्लभेद। असलियत में हम बाहरवाले को तब तक ही सहन कर पाते है जब तक कि वो हमसे आगे न निकल जाए। दूसरे देश या प्रांत से आया व्यक्ति अगर मज़दूर है तो वो हमें चलता है लेकिन, जैसे ही वो मालिक बन जाता है हमें खटकने लगता है। खैर, इस सबसे इतर क्या हमने कभी ये सोचा है कि ऐसे लोग हमें कितना फ़ायदा पहुंचाते हैं। पंजाब का उदाहरण में पहले ही दे चुकी हूँ। खाना-पान का मामला भी ऐसा ही है। कब कोई बिहारी केवल लिट्टी चोखा खा सकता है क्या दाल-बाटी का स्वाद उसे कुछ अलग कुछ नया नहीं लगता होगा। या फिर गुजराती श्रीखंड खानेवाले को क्या बंगाली मिठाई पसंद नहीं आती होगी। सभ्यता विकसित ही तब होती है जब वो फैले लोग उससे जुड़े। ऐसे में विरोधाभासों के साथ ही जो नई बातें हम सीखते है शायद उन्हें स्वीकारने में हमें शर्म महसूस होती हैं।

5 comments:

डॉ .अनुराग said...

मेन चीज है टोलेरेंस ...समूह की टोलेरेंस हमेशा कम रहती है .....ईष्या मानव स्वभाव है हमेशा रहेगा .... अब इसका राजनीतिकरण करके इसको ओफिसियाली बनाया जा रहा है

Science Bloggers Association said...

आपकी बात सही है। पर यदि हम स्वीकारने का साहस दिखा सकें, तो इससे हमारा ही विकास होगा।

-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

कुश said...

भेल पूरी का स्वाद ही तब आता है जब उसमे सारे मसाले हो.. सिर्फ एक से वो मजा नहीं आता..

Aadarsh Rathore said...

:)

Aadarsh Rathore said...

आपका हर लेख नवीनता लिए होता है। शायद आपको याद न हो लेकिन मैंने आपको एक बार न्यूटन की संज्ञा दी थी। वो इसीलिए क्योंकि न्यूटन की तरह ही आप हमेशा अलग सोचा करती हैं। हमारे आसपास बहुत सारी चीज़ें ऐसी होती हैं जिनपर हम ध्यान नहीं देते। जैसे न्यूटन ने ग्रैविटी की खोज की और ये सोचा कि आखिर चीज़ें ऊपर से नीचे ही क्यों गिरती हैं, ठीक उसी तरह आप परिवेश में घट रही चीज़ों पर विचार-विमर्श करती हैं। बेहद गहरा विश्लेषण करती हैं लेकिन हल्के-फुल्के ढंग में पेश करती हैं। ग़ज़ब की योग्यता...
निरंतर मार्गदर्शन करते रहें।