Friday, June 19, 2009

जरुर संजोया था मैंने भी सपना...

हाँ.. जरुर संजोया था मैंने भी सपना
देखे थे कुछ ख्वाब..
आगे बढ़ने के
कुछ बेहतर करने के
लेकिन मैंने ऐसा तो नहीं सोचा था...


बचपन से सुनता आया था..
की बेटा.. कुछ पाने के लिए
कुछ खोना भी पड़ता है.
हंसने के लिए कभी..
रोना भी पड़ता है..
लेकिन मैंने ऐसा तो नहीं सोचा था.
नहीं सोचा था की मेरे आगे बढ़ने से
सब कुछ पीछे छूट जायेगा..
और कभी मैं उनसे बहुत आगे निकल आऊंगा
जहाँ से पीछे देखने पर सिर्फ वीरान रास्ते ही नज़र आयेंगे.













कभी नहीं सोचा था की बीमार माँ को
खुद ही अपना इलाज कराना पड़ेगा..
और रिटायरमेंट के बाद अकेलापन महसूस करते पापा को..
बस पुरानी बातें याद कर और

बार-बार पान की दुकान पर जाकर
खुद को तसल्ली देनी होगी..

बचपन से जो साथ रही
खेल खिलौने पढना लिखना..
बात-बात पर लड़ना मरना
कभी नहीं सोचा था वो दीदी
इतने-इतने दूर रहेगी..

कभी नहीं सोचा था की सब कुछ पीछे छूट जायेगा..
रिश्ते नाते दोस्त पड़ोसी..
चाची, मौसी, भैया, मामा
गली, मोहल्ला, आम बगीचा..
सब पीछे..कही बहुत पीछे छूट जायेंगे
और मैं आगे..बहुत आगे निकल आऊंगा
मैंने ऐसा तो नहीं सोचा था....

4 comments:

saket said...

जब मैंने इसे पढना शुरू किया तो मैं हस रहा था लेकिन फिर जैसे ही मैं तीसरे पारे की तरफ रुख करता हु मेरी हसी अचानक रुक गयी और मैं थोडा भाबुक हो उठा, मेरी आखों में आसू आ गए. हो भी क्यूँ न. बचपन से जो परिवार एक साथ हसते खेलते लड़ते झगड़ते सुख दुःख मिलकर बाटते आगे बढता है उसे जिंदगी के एक मोड़ पर पर आकर अलगाव मिले तो तकलीफ तो होगी ही. आपने इसका चित्रण बड़े अच्छे से किया है. बहुत बडिया.

श्यामल सुमन said...

भाव प्रधान रचना। नन्द कुमार उन्मन कहते हैं कि-

अपने सारे खोये मैंने सपने तुम न खोना।
होना जो था हुआ आजतक बाकी अब क्या होना।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

M VERMA said...

atyant bhavpurn rachana.

राज भाटिय़ा said...

मै आप की पहली रचना पढ के यहां आया, लगता है आप ने यह रचना मेरे जेसो के लिये ही लिखी है, बस मेरे पास कोई शाव्द नही.....
यही कहुंगा कि आप ने एक सच लिख दिया.
धन्यवाद
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