Sunday, June 14, 2009
ट्रेन का लम्बा इंतज़ार और वेटिंग रूम का नज़ारा..
दीदी की ट्रेन रात के ११:३० की थी और मेरी ०३:४० की. स्टेशन पर हमें छोड़ने सतीश भैया, महेश भैया और सोनू आये थे. दीदी की ट्रेन पटना से ही बनती थी फिर भी आधे घंटे लेट आई और तकरीबन एक घंटे देर से गई. ट्रेन जाने के बाद बाकी लोग चले गए लेकिन देर रात दुबारा स्टेशन आने की परेशानी से बचने के लिए मैं वहीँ रह गया. ट्रेन में अभी काफी वक्त था इसलिए वेटिंग रूम की तरफ रुख किया. वेटिंग रूम का दरवाजा खोलते ही एक बदबदाती दुर्गन्ध मेरे नाक को जैसे चीरती हुई जेहन में उतर आई. मन किया की उल्टे पांव वापस हो लूँ लेकिन फिर अन्दर आ गया. बैठने को सौ ग्राम जगह तलाशने के लिए नज़र दौड़ाई तो लोग पांव पसारे दिखे. एक लम्बी बेंच..उस पर लम्बा हुआ आदमी और उसका सामान. जेंट्स वेटिंग रूम में महिलाओं की भी कमी नहीं थी. जगह ढूँढने मैं दूसरे कमरे में जा पहुंचा. यहाँ थोड़ी जगह थी. अपना सामान पैरों के पास रख कर मैं वहां बैठ गया. लेकिन बैठते ही मुझ पर मक्खियों का जैसे हमला हो गया. एक साथ न जाने कितनी मक्खियाँ... ऐसे में अख़बार बहुत काम आता है. अख़बार की धार से तो बड़े बड़े चित हो जाते है तो ये मक्खियाँ क्या चीज़ थी.. दो चार मारी गईं तो मेरी तरफ आना छोड़ दिया. अब मै थोड़े आराम से बैठा था. यहाँ बदबू भी कम थी. बैठे बैठे कमरे में नज़र दौड़ाई.. चार पंखों में से दो ठीक थे.. एक ख़राब और एक नदारद. बंद पड़े दो एसी दीवार पर महज़ पेंटिंग के सामान टंगे थे. कूडेदान पूरी तरह अटा पड़ा था...सामने की बेंच पर सज्जन अपने बैग की बेल्ट हाथों में फंसाए बेसुध सो रहे थे.. बीच की खाली जगह में एक परिवार ने चादर बिछा कर डेरा जमा लिया था. तीन छोटे-छोटे बच्चे मुहं खोले सोये पड़े थे और मक्खियाँ...
गाड़ियों के आने-जाने की एनाउंसमेंट के बीच एक बुजुर्ग दंपत्ति वहां पहुंचे... थोड़ी देर तक व्यवस्था को गाली दी और फिर फर्श पर चादर बिछा कर लम्बे हो गए. इधर एनाउंसमेंट सुन कर लोग हड़बडाये उठते और सामान समेट कर तेजी से निकल जाते. कुछ देर बाद स्टेशन पर शांति छा गई. इस बीच मैंने कागज़-कलम निकाल कर लिखना शुरू कर दिया था.. अचानक एक तेज एनाउंसमेंट हुई... कोचिंग स्टाफ ध्यान दे.. "फलां ट्रेन के शौचालय में पानी नहीं है... जल्द से जल्द पानी भरें... " इस तेज़ आवाज़ के साथ वेटिंग रूम में सोये लोगों की नींद भी टूट गई... थोड़ी देर इधर-उधर देखने के बाद कुछ की निगाहें मुझ पर आ टिकी. ऐसा लगा जैसे सोच रहे हों इतनी रात में स्टेशन पर क्या लिख रहा है..जरूर नाटक कर रहा है..और मौका मिलते ही सामान लेकर भागने की फिराक में है. फिर अपना सामान थोड़ा इधर-उधर हिला कर जैसे सुरक्षित किया और फिर लम्बे हो गए. थोड़ा ही समय बीता की फर्श पर सोये बच्चो में से एक जाग गया और पूरी ताकत के साथ रोने लगा. कुछ देर बाद उसका रोना मेरे बर्दास्त के बाहर हो गया. मैंने घड़ी देखी... अभी भी ट्रेन आने में काफी वक्त बचा था. मैंने अपना सामान उठाया और हमेशा पंख लगा कर उड़ने वाले वक्त को कोसते हुए बाहर निकल आया की आज इसे बीतने में इतनी देर क्यों हो रही है ?
-पटना रेलवे स्टेशन पर हाल ही में बीती एक रात.
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11 comments:
बडी हिम्मत है, जो अंदर चले गये, लेकिन लेख पढ कर मजा आ गया,
पटना नहीं कमोबेश हर रेलवे स्टेशन की यही कहानी है।
वापस आ गए क्या? अभी मई में ही तो पटना में ऐसी ही एक रात मैंने भी गुजारी थी, सच ऐसा ही था, जैसा लिखा है. लेकिन तब मैं अपने घर जा रहा था, तो ठीक लग रहा था,,,
वापस आ गए क्या? अभी मई में ही तो पटना में ऐसी ही एक रात मैंने भी गुजारी थी, सच ऐसा ही था, जैसा लिखा है. लेकिन तब मैं अपने घर जा रहा था, तो ठीक लग रहा था,,,
वापस आ गए क्या? अभी मई में ही तो पटना में ऐसी ही एक रात मैंने भी गुजारी थी, सच ऐसा ही था, जैसा लिखा है. लेकिन तब मैं अपने घर जा रहा था, तो ठीक लग रहा था,,,
वापस आ गए क्या? अभी मई में ही तो पटना में ऐसी ही एक रात मैंने भी गुजारी थी, सच ऐसा ही था, जैसा लिखा है. लेकिन तब मैं अपने घर जा रहा था, तो ठीक लग रहा था,,,
http://www.apnailakaa.blogspot.com/
majedar post
लालुजी चले गये तो पट्ना में ये हालत..
bahut khub..aapne ralwe ki sahi tashvir ko pesh kiya hai... jo kabhi sudharne wala nahi lagta...padhakar man khush ho gaya...us warnan ne man ko gudguda diya..jisame aapne kaha hai ki log aapke likhale ko dhakoshala samajha rahe honge..aur unke man me ye wichar aa rahe honge ki ye ladka mera saman lekar pal bhar men champat ho jayega..aapne bhi unke dar se waiting room ko chhorkar bahar plateform par aagaye..shayad isase unaka shak aur majboot hua hoga...
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