Wednesday, April 15, 2009
सर्वे के मुताबिक़...
अभी-अभी ब्लॉगवाणी की सैर करते हुए एक पोस्ट के शीर्षक पर नज़र पड़ी - लड़कियों को नहीं होता रिश्ते टूटने का ग़म। ये लेख ब्लॉगर ने एक ख़बरिया बेवसाइट पर छपे आर्टिकल जिसमें कि किसी सर्वे का निष्कर्ष लिखा था के संदर्भ में लिखा है। इस सर्वे के मुताबिक़ लड़कियाँ रिश्ते के टूटने पर ज़्यादा दुखी नहीं होती हैं और उन्हें दूसरे रिश्ते की शुरुआत करने में कोई दिक़्कत भी नहीं आती हैं। आजकल इस तरह के कई सर्वे थोड़े-थोड़े दिनों में पढ़ने को मिल जाते हैं। कही महिलाओं की सेक्स रूचि को लेकर सर्वे सामने आते है, कभी उनके जीवन साथी के प्रति बदलती सोच को लेकर कोई सर्वे दिखाई दे जाते है। कई साप्ताहिक पत्रिकाएं अपनी टीआरपी को एक अप देने के चक्कर में ऐसे सर्वे हर छः महीने में एक बार छाप देती हैं। लेकिन, सवाल हर बार एक ही रहता है कि कितने मौलिक होते है ये सर्वे? आख़िर कहाँ, किन से और कब बात करते है ये सर्वे करनेवाले लोग। हमारे देश का एक बहुत बड़ा हिस्सा युवा है। और, इस हिस्से की सोच लगातार बदल भी रही है। वो रुढ़ियों को तोड़ भी रहे है। लेकिन, इस तरह के सर्वे में आनेवाले आंकड़ें गले से नीचे उतरने लायक़ नहीं होते हैं। सर्वे में एक सवाल होता है कि क्या आप महिला होते हुए भी सिगरेट पीना पसंद करेगी? जवाब में एक पाई मैप होता है जिसे देखकर पता लगता हैं कि चालीस फ़ीसदी का मानना है हाँ, तीस का ना और दस का कह नहां सकते। साथ ही साथ सर्वे में कोने में कही लिखा होता है कि शहर में रहनेवाले एक हज़ार युवाओं से की गई बातचीत के अनुसार। जिस देश में युवाओं की आबादी करोड़ों में हो और जिनमें से आधे से अधिक हिस्सा किसी छोटे शहर या गांव में रह रहा हो, वहाँ कैसे कुछ हज़ार युवा किसी सर्वे का सैम्पल बन सकते हैं। अगर सैम्पल हो भी तो हर तबके और हर माहौल से कुछ लोगों को चुनना चाहिए। कैसे एक महानगर में रहनेवाला एमएनसी में काम करनेवाला लड़का या लड़की किसी गांव के लड़के या लड़की की सोच को प्रतिबिम्बित कर सकता हैं। और, ये हज़ार लोग भी आख़िर कौन है। महानगर में भी कई तरह के लोग रहते हैं। तो सर्वे के लिए कैसे और किन्हें चुना गया है ये कहीं कोई नहीं बताता हैं। मेरे कई दोस्त ऐसे सर्वे करनेवाली संस्थाओं से जुड़े हैं। कई बार ऐसा होता है कि उनके लिए मैं अकेली ही दस फ़ार्म भर देती हूँ। ऐसे में, ऐसे किसी भी सर्वे को करने के पीछे का औचित्य मुझे आजतक समझ नहीं आया। हो सकता है कल को कोई सर्वे आ जाए कि ब्लॉग पर लिखनेवाले दिमागी रूप से खाली होते हैं या फिर बस में चलनेवाले सहनशील या फिर दाल चावल खानेवाले हंसमुख और ये सबकुछ एक स्टार के निशान के साथ। जहाँ नीचे कही लिखा होगा कि ये सर्वे हमनें खु़द पर ही किया हैं...
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10 comments:
अच्छा लिखा। भला हो भी क्यों न, दो-दो सौ रुपये में सर्वे करवाएंगे तो भला बेरोजगार पत्रकार(कई सारे वहीं है) क्या करे। घर बैठे सर्वे कर डालता है। रही बात लड़कियों के बारे में सर्वे की तो अपने देश में ज्यादातर मीडिया हाउस इसे इसलिए छापता है कि सर्कुलेशन बढ़े। देश का बड़ा तबका जिस तरह की बंदिशों में अभी तक जी रहा है उसमें लड़कियों के बारे में जानने का माध्यम यहीं मीडिया है या नहीं तो नीले साहित्य।
मेरा व्यक्तिगत रुप में से मानना है कि संबंधो के टूटने से लड़कों की अपेक्षा लड़कियां ज्यादा आहत होती है और शायद इसकी वजह उनकी मनोवैज्ञानिक बुनाबट में छुपी हैं।
hello diptee.
i realy admire ur post.. everyday i read it. keep it up...
सही लिखा है आपने। मैंने सर्वे करने वालों को ख़ुद ही शब्दों को अदल बदल कर कई फॉर्म भरते देखा है। ऐसे में इनकी विश्वसनीयता और औचित्य ही कहाँ रह जाता है।
aapke blog par pahli baar mera aana hua hai.. achchi post likhi hai aapne... asliyat yah hai aise survey sahi nahi hote.. patra patrikao ka uddesay sirf munafa badana rahta hai...
i dont remember but i read somewhere..surveys are best friend of a lazy editor..neway if you collect enough sample sets covering all the variables...survey can be pretty accurate...before judging any survey..it should be noted what was the sample data..breadth of ppl covered in survey etc...many surveys specify in the beginning that the population covered is mainly from metros...you cant blame the surveyors for it.. i think the responsibility lies with the editor and the readers...who in the absence of anything better to read..read useless surveys
सुशान्त झा की टिप्पणी से सहमत
सुशान्त झा से पूरी तरह सहमत।
किसे फुरसत है कि इन सर्वेक्षणों की वास्तविकता तलाशे। इसी का फायदा उठाते हैं ये लोग।
सर्वे का तो पता नहीं....मैंने जो अपने जिन्दगी में अनुभव किया है उससे यही सामने आया कि रिश्ता टूटने का गम लड़कियों को नहीं होता......और ये भी देखा वो बहुत जल्द नोर्मल जिन्दगी जीने लगती है ........ऐसे कई मामले मैंने देखे हैं....lekin sare mamle ek jaise nahi hote.
rishe tutane ka dard jane na koi
सर्वे के कई कारण होते हैं । विज्ञापन भी इसमे प्रमुख है । चुनावी सर्वे ने यह साबित कर दिया है कि यह सब किस तरह होता है । इस लिये सर्वे की तुलना मे वास्तविक प्रयोग को वरीयता प्रदान की जाती है । वैज्ञानिक मान्यताये किसी सर्वे के आधार पर नहीं बनती । इसके लिये वास्तव मे प्रयोग किये जाते हैं । इन प्रयोगो का किसी प्रयोगशाला मे होना ज़रूरी है साथ ही प्रयोगकर्ताओं के नाम , स्थान . दिनांक , समय के साथ किसी पंजीकृत साइंटिफिक जनरल मे प्रकाशित होना ज़रूरी है । यह इसलिये लिख रहा हूँ कि आजकल विज्ञापनों मे भी सर्वे का उल्लेख करते हुए अक्सर ऐसा लिख दिया जाता है कि वैज्ञानिको ने कहा , मनोवैज्ञानिको का मानना है .. आदि आदि ।
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