पिछले रविवार को भोपाल से मेरे एक दोस्त का फोन आया। वो भोपाल में ही एक हिन्दी अख़बार के साथ जुड़ा हुआ। कुछ दिन पहले जब दीक्षांत समारोह के दौरान भोपाल जाना हुआ था तो उससे भी मुलाक़ात हुई थी।
खैर, फोन पर ही यूँ ही बातचीत हो रही थी कि अचानक उसने पूछा - और, आज का क्या प्रोग्राम है?
मैंने कहा - कुछ खास नहीं छुट्टी है। कपड़े धोना हैं और रूम की साफ-सफाई।
वो बोला अरे - आज रंगपंचमी है। याद नहीं क्या?
मैं एक पल को चुप रह गई। फिर जवाब दिया - मैं तो पूरी तरह भूल गई थी। दिल्ली में तो कोई मनाता ही नहीं है।
बातचीत हुई और मैंने फोन रख दिया। इसके बाद शाम को दोस्तों के बीच बैठे हुए मैंने कहा - रंगपंचमी यूँ ही बीत गई। घर पर होती तो कोई न कोई तो रंग ही जाता।
मेरे दोस्त जिनमें से कोई भी मध्य प्रदेश का नहीं हैं एक साथ बोले कि - ये क्या बला है? रंगपंचमी...
मैंने फिर उन्हें बताया कि क्या होती है रंगपंचमी। अगले दिन नेट पर घूमते हुए जागरण पर इंदौर में धूमधाम से मनाई गई रंगपंचमी की ख़बर पढ़ी। एक पल को लगा कि कितनी मस्ती हुई होगी वहाँ और यहाँ पता तक नहीं चला। इसके दो-तीन दिन बाद सुबह-सुबह मम्मी का फोन आया। मेरा हालचाल जानने के बाद उन्होंने बताया कि वो अभी पूजा करके लौट रही हैं। मैंने पूछा - आज कौन-सी पूजा?
वो बोली - आज सीतला सप्तमी है। याद नहीं क्या तुम्हें।
मैं कुछ नहीं बोली। तब से ही मन में ये बार-बार आ रहा है कि शायद मेरे अंचल में बननेवाले ये त्यौहार अब मुझसे दूर होते जा रहे हैं। यहाँ की भाग-दौड़ में जब होली-दीवाली यूँ ही बीत जाती हैं, तो ये त्यौहार मैं कैसे मना पाऊंगी। फिर लगता है कि शायद याद भी न रख पाऊंगी...
4 comments:
सच कहा-बस यादें शॆष रह जाती हैं.
दिल्ली में त्योहारों से मुलाकात तो दूर है जी, खुद से ही मुलाकात नहीं होती। अब तो वर्चुएल त्योहार मनाइये, नेट पर रंग डाल दीजिये और नेट पर ही दीवाली कर लीजिये। कुछ दिनों पर होगा यूं कि आलोक पुराणिक मरे रखे हैं उनकी लाश का वीडियो यू ट्यूब पर चल रहा है। ब्लाग पर आनलाइन शोकसंदेश आ गया।
इत्ता बहुत है जी। दिल्ली में और क्या जान लोगी किसी की।
aapne ghar aur maa ki yaad dila di. kaam ya study ke liye ghar choot jata hai aur saath hi bahut kuch aisa jo btayen kaise...
कभी इधर कभी उथर
मंजिस से अपनी बेखबर,
हम व्यर्थ भटकते रहे
यूं ही उलझते रहे...
बढ़िया ब्लॉग है. विचार भी अच्छे हैं।
शुभकामनाएं।
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